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Jagran Junction Forum – क्या बीजेपी विपक्ष की भूमिका के साथ न्याय कर पा रही है ?

पाठक नामा -
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जागरण जंक्शन ने इस बार के फोरम में एक बहुत ही जवलंत मुद्दे क्या बीजेपी विपक्ष की भूमिका के साथ न्याय कर पा रही है ? पर बहस आरम्भ की जो स्वागत योग्य है और होनी भी चाहिए !! इस लिए मैं भी स्वागत करता हूँ.

जहाँ तक बात राजनितिक गरिमा को बनाए रखने की है इस बात में कोई शक नहीं किया जा सकता की जब तक पार्टी में श्री अटल बिहारी बाजपाई जी की स्वीकार्यता थी तब तक पार्टी घोर साम्प्रदायिक लेबल के साथ भी गैर कांग्रेसी पार्टियों में भी स्वीकार्य थी और जिसका परिणाम 1997 -98 से लेकर 2003 -04 तक 6 वर्ष की अवधि में सुचारू रूप से शासन भी किया और 28 पार्टियों के गठबंधन की सरकार भी सफलता पूर्वक चलाई इस बात को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता इतना ही नहीं भारत में गठबंधन सरकारों का चलन भी आरम्भ करने का कार्य भी किया जो एक असंभव कार्य था या कहें की सत्ता की चाह थी जो भी हो पर रहा अद्भुत ही !!!

लेकिन बात अगर एक सक्षम विपक्ष की भूमिका की हो तो शायद यह कहना ही ठीक रहेगा की इस बात में बीजेपी को पासिंग मार्क्स भी नहीं दिए जा सकते कारण यह कि सत्ता पाने के बाद या ऐसे कहें कि सत्ता का स्वाद चखने के बाद बीजेपी के कार्य कर्ताओं में एक गजब का बदलाव आया है वह है समझौता वादी रुख जो स्वर्गीय प्रमोद महाजन के राजनितिक बुलंदी हासिल करने के कारण भी हो सकता है – क्योंकि हमने तो पहली बार ही उनके मुहं से यह सुना था कि उन्होंने ने राजनीती को सेवा के स्थान पर अपना (पेशा ) व्यसाय बनाया है ? इस लिए , सभी व्यक्ति चाहते है अपने रहन सहन के स्तर में सुधार हो और राजनितिक पार्टी का सदस्य होने से तो और भी लालसा बढ़ जाती है सत्ता की गिलोरी खाने कि ( क्योंकि पार्टी के लिए कब तक स्वयंसेवक बन कर बनवास सहते रहेंगे स्वयं सेवक ) जबकि खुद बीजेपी सहित कुछ अन्य राजनीतिक विशेषज्ञ यह मानते हैं कि पार्टी प्रमुख विपक्षी दल की भूमिका में होने के साथ ही इस भूमिका के साथ न्याय करने की भी पूरी कोशिश कर रही है। ऐसे लोग यह भी मानते हैं कि पार्टी ने प्राय: देश हित और जन हित के लिए सत्ता पक्ष को सही दिशा में सोचने के लिए मजबूर किया है और लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली के मूल मानदंडों के अनुरूप राष्ट्र की गरिमा को बनाए रखने का कार्य किया – अब यह कार्य मजबूरी में किया है या परम्परा बनाए रखने के लिए समझ से परे है ?
१. क्या आपको लगता है कि भारत में विपक्ष हमेशा महत्वहीन रहा है? हाँ, इस बात में कोई शक नहीं है क्योंकि विपक्ष हमेशा ही सरकार की कमजोरी पर ही निशाना साधता है और बिना मतलब संसद कि कार्यवाही को बाधित करने का प्रयास करता है लेकिन सरकार को गिरा नहीं पाता जिस कारण जनता को गलत सन्देश जाता है दूसरी बात यह कि विपक्ष की पार्टियों का एक जुट न होना, कहीं साम्प्रदायिकता आड़े आती है कही केडर आड़े आता है कही धर्म का बोलबाला है तो कही क्षेत्रियिता बीच में आजाती है और जब यह सब सिमटता है तो नंबर का खेल सामने आजाता है ? और नंबर के खेल में अगर सरकार की गिनती पूरी हो जाती है तो बल्ले बल्ले – और विपक्ष अपने को संगठित ही नहीं कर पता है ( अब चाहे इसमें धन बल का कमाल हो या इसमें सीबीआई का खेल हो कुछ भी हो सकता है ) और विपक्ष संसद में गिनती के खेल में सक्षम होने के बाद भी बंधुआ जैसा दिखता है ?
२.एक वास्तविक विपक्ष की कार्यशैली किस प्रकार की होनी चाहिए? राजनितिक शास्त्र और कुछ और भी मान्यताओं के अनुसार किसी भी विपक्ष की कार्यशैली एवं भूमिका रचनात्मक ही होनी चाहिए, सरकार चाहे अल्पमत की हो या फिर प्रचंड बहुमत की हो केवल विरोध के लिए विरोध करके औपचारिकता भर निभाने से तो अच्छा है की विरोध ही न किया जय केवल दिखावा करना उचित नहीं होता है और वहीँ दूसरी समाज के लिए उपयोगी और कल्याणकारी कार्यों का स्वागत होना चाहिए साथ ही समाज के लिए घातक क़ानून और कार्यों का प्रचंड विरोध ही नहीं उसे किसी भी रूप स्वीकार ही नहीं करना चाहिए ?
३, क्या बीजेपी विपक्ष की भूमिका का निर्वहन कर सकने में सक्षम है? हाँ ऐसा मानाने में कोई हर्ज नहीं है पर वास्तिविकता इससे अलग है क्योंकि ऐसा देखा गया है कि जब जब बीजेपी को अपनी किसी प्रादेशिक सरकार के किसी मुखिया के द्वारा किये गए किसी कार्य को उचित टहराना चाहा हो या केंद्र से कोई लाभ मिलता दिखा तो किसी लालची व्यक्ति के समान केंद्र की मनमानी योजना या कार्य को राष्ट्रहित का नाम देकर स्वीकार कर लिया ? विपक्ष का दायित्व इस तरह से नहीं निभाया जाता ? अभी हाल ही में लोक पाल / जन लोक पाल या बाबा राम देव का आन्दोलन अन्ना हजारे का आन्दोलन सब में आगे बढकर अपनी उपस्थिति दर्ज करती रही है परन्तु जब लोक पाल के निर्माण की बात संसद में आई तो उस पर एक मत नहीं हो सकी यह दोहरा चरित्र उचित नहीं है जनतंत्र के लिए ? पब्लिक में कुछ और तथा संसद में कुछ और ?
क्या भारतीय जनता पार्टी को अपनी कार्यशैली में बदलाव लाने की महती आवश्यकता है? असल में भारतीय जनता पार्टी की अपनी कोई विचार धारा या आइडियोलाजी है ही नहीं तो कार्यशैली में किस बदलाव कि आवश्यकता होगी ? कारण स्पष्ट है देश ही नहीं विदेश में भी लोग यह जानते है कि जनसंघ से रूपांतरित होकर जो भारतीय जनता पार्टी बनी उसका एक इतिहास है और वह यह की है १९७५ के आपात काल में विपक्ष के नेतागण जब जेल में थे तो एक सहमती बनी थी और आपात काल के समाप्त होने पर स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण जी के नेतृत्व देश में पहली बार विपक्ष एक जुट हुआ और जनता पार्टी का उदय हुआ था तथा १९७७ में हुए आम चुनाव में जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला था क्या इससे कोई इंकार कर सकता है ? क्योंकि भारतीय जनता पार्टी जो उस समय जनसंघ के अवतार के रूप में थी तथा आर एस एस के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण जनता पार्टी और आर एस एस की दोहरी सदस्या के सवाल के कारण जनता पार्टी का विघटन हो गया और जनता पार्टी समाप्त कर दिया गया \ तब जन संघ भारतीय जनता पार्टी के रूप में अवतरित हुई परन्तु आर एस एस के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को आज तक भी समाप्त नहीं कर पाई वास्तव में भारत के मुश्लिम समुदाय में यह भय है की आर एस एस एक सांप्रदायिक संघठन है और अपनी लाख कोशिशों के बाद भी बीजेपी इस दाग को मिटा नहीं पाई है क्योंकि कारण साफ़ है कि कथित बावरी मस्जिद जो राम मंदिर के रूप में विद्धमान थी उसको भारतीय जनता पार्टी के राम मंदिर के आन्दोलन के समय ही तोडा गया है ? चूँकि ऐसा समझा जाता है की बी जे पी एक स्वतंत्र इकाई है ही नहीं यह तो आर एस एस की राजनितिक शाखा के रूप में कार्य करती है और इस पर पूरा नियंत्रण भी आर एस एस का ही होता है भले ही पार्टी का झंडा भी है अध्यक्ष भी है तथा पार्टी में चुनावी प्रक्रिया भी होती है लेकिन आखिरी आदेश संघ का ही होता है – और यह स्पस्ट भी है वर्तमान अध्यक्ष गडकरी साहेब ने श्री राजनाथ सिंह से बिना अध्यक्ष चुने ही कार्यभार ले लिया था जबकि उनका चुनाव तीन महीने के बाद हुआ था ? इसी प्रकार से वयोवृद्ध जुझारू नेता अडवाणी जी जो अपनी लोह्पुरुष की छवि के द्वारा ओजस्स्वी राजनेता के रूप में जाने जाते रहे है , को एक छोटे से जिन्ना प्रकरण के बाद विपक्ष के नेता पद से अपमानित करके आर एस एस के द्वारा ही हटाया गया था क्या यह बहुत पुरानी बात है ? एक और पुराना प्रकरण है वर्ष २००२ का जब श्री अटल बिहारी जी प्रधान मंत्री थे तो उन्होंने ने गुजरात के मुख्या मत्री नरेन्द्र भाई मोदी को गुजरात दंगो के दौरान, मोदी को राजधर्म निभाने कि सलाह दी थी परन्तु आर एस एस के वीटो के कारण उस कलंक को मोदी आज भी ढोह रहे है भले ही वह गुजरात में एक क्षत्र नेता माने जाते है ? उनके इस कलंक के लिए अमेरिका जैसे देश के दरवाजे आज भी मोदी के लिए बंद ही है ? इसमें कोई शक की बात नहीं है की भारत में आर एस एस और उसके अनुसांगिक संगठन हिंदुत्व के अकेले संरक्षक ही नहीं हिंदुत्व के लिए कट्टरता की किसी भी हद तक भी चले जाते है और इसी कारण कुछ लोग आर एस एस के इस रूप को तालिबान के भारतीय संस्करण में देखते है इस लिए बी जे पी को इस छवि से बाहर निकलने के लिए आत्ममंथन के लिए बहुत कुछ बदलाव करने की आवश्यकता है नहीं तो उसके विकल्प के रूप में २०१४ के लिए बाबा राम देव और अन्ना की टीम पर भी आर एस एस दावं लगाने के लिए तत्पर तो है ही ? एस पी सिंह, मेरठ /२८/३/२०१२

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