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क्या बंगाल की शेरनी दीदी – दादा की राह रोक पायेगी ????

पाठक नामा -
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pranab_mukherjee

देर सवेर अब यह घोषणा होना ही बाकी है की प्रणव दादा भारत देश के प्रथम नागरिक हो गए है चूँकि सारी औपचारिकता पूरी हो होने के बाद ही यू०पी० ए० ने दादा को अपना प्रत्यासी बनया है लेकिन बंगाली शेरनी अपनी आदत के अनुसार खिसयानी बिल्ली के सामान खम्बा नोच रही है चूँकि जिस पहलवान के बल पर वह उछल रही थी उन्होंने पहले ही दादा के नाम का समर्थन कर ही दिया है अब थोड़ी ना नाकुर करने के बाद एन डी ऐ भी दादा का समर्थन करता हुआ दिखाई देगा ? यहाँ यह भी उल्लेखनीय है की आधुनिक नारदमुनी सुब्रहमन्यम स्वामी अपनी अलग ही खीचड़ी पकाने की कोशिस कर रहे है और जी जान से लगे हुए है, साथ ही एक प्रतिष्ठ नाम को भी धूमिल करने की कोशिस भी है , लेकिन एक सबसे बड़ा सवाल जो है वह यह है की देश के प्रथम व्यक्ति का चयन केवल कुछ मुट्ठी-भर लोग ( संसद और प्रदेश की विधान सभाएं ) ही मिल कर करे जिनमें बहुत से लोगों पर खुद भ्रष्ट होने के आरोप हैं ? अभी कल ही देस के जाने माने संविधान विशेषज्ञ श्री सुभाष कश्यप ने अपने एक लेख में राष्ट्रपति की चुनावी प्रक्रिया की गरिमा पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं उनका कहना है की —-”देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए जिस तरह के जोड़ तोड़ देखने सुनाने को मिल रहे है वह न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि लज्जाजनक भी हैं, राष्ट्रपति का पद शीर्ष संवैधानिक पद होने के साथ ही गरिमा का पद भी है, इस लिए ऐसी कोई भी बात जिससे इस पद की गरिमा प्रभावित होती हो, ठीक नहीं मानी जा सकती! इस लिए ऐसी किसी भी स्थिति से बचने के लिए संविधान में राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए गुप्त मतदान का प्रावधान किया गया है ताकि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि राष्ट्रपति का चुनाव बिना किसी भेदभाव और अपनी आत्मा की आवाज पर निष्पक्ष रूप से कर सकें | इसमें किसी प्रकार की दलगत राजनीति अथवा पक्षपात के लिए स्थान नहीं है हालाँकि वर्तमान परिदृश्य में यही सब कुछ देखने को मिल रहा है \ छोटे छोटे क्षेत्रीय राजनितिक दल स्वार्थवश राष्ट्रपति पद के समर्थन के बदले अपनी अनुचित मांगे मनवाने के लिए कर रहे हैं.” अपने लेख में वह आगे चल कर कहते हैं. कि—–”राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का चयन करने का अधिकार आखिर एक राजनितिक दल को ही क्यों? क्या जनता केवल मूक दर्शक ही बनी रहे ” यहाँ सबसे बड़ा सवाल ही यही है कि जब संविधान निर्माताओं ने केवल राष्ट्रपति पद के चुनाव कि चयन प्रक्रिया में जनता को शामिल ही नहीं किया है तो जनता क्या करे ? सविंधान निर्माताओं ने संविधान में राष्ट्रपति कि चयन प्रक्रिया में केवल और केवल सांसद और विधान मंडल के सदस्यों को ही शामिल किया है तो क्या यह गलती जनता कि है ? श्री सुभाष कश्यप को संविधान विशेषज्ञ होने के नाते इस और भी ध्यान देना चाहिए था – क्या संविधान निर्माताओं ने भारत वर्ष कि जनता के साथ धोका किया चूँकि राष्ट्रपति देश का प्रथम नागरिक होता है लेकिन उसको चयन करने का अधिकार जनता को यानि आप आदमी को नहीं है ? आज की आधुनिक राजनितिक परिदृश्य में जब कथित रूप से जनता के एक बड़े बुद्धिजीवी वर्ग (सिविल सोसाइटी और विभिन्न संगठनो ) ने देश की राजनीति व्यस्था और राजनितिक पार्टियों सहित संसद के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिया है तो क्या इस परिस्थिति में चुना गया कोई राष्ट्रपति इन कथित संघठनो को मान्य होगा क्योंकि जब किसी व्यक्ति को चुनने वालों पर ही भरोसा नहीं है तो उनके द्वारा चुने गए सर्वोच्च पद के व्यक्ति पर भरोसा क्योंकर करेंगे और फिर आरम्भ होगा एक और नया वर्ग संघर्ष तो क्या इन सब बातों के लिए हम अपने संविधान निर्माताओं को दोष दे सकते है उत्तर निश्चित ही हाँ में होगा ? इस लिए अब यह समय की पुकार है की हमें अपने संविधान को अगर दुबारा से न भी लिखा जाय तो भी व्यापक स्तर पर संसोधन की आवश्यकता तो है ही जिसमे मुख्य रूप से, (१) चुनावी प्रक्रिया में सुधार जिसमे आपराधि, बदमास, दागी – दबंग लोगों को दूर रखा जाय आज हम देखते है की चुनावी प्रक्रिया इतनी दूषित हो चुकी है की या तो पैसे वाला व्यक्ति या फिर अपराधी प्रवृति का व्यक्ति ही चुनावे विजई होता है – जिस कारण से अपराधी व्यक्ति सर्वमान्य बन जाता है और आम जनता ठगी सी रह जाती है (२) भूमि सुधार , आज किसानो की बेस्किमती जमीन जो किसान और उसके परिवार का रोजी रोटी का एकमात्र सहारा होती है कुछ तुच्छ नेता मंत्री सरकारी कानूनों की गलत व्याख्या कराके उनकी जमीन विकास के नाम पर सरकारी खाते में एक्वायर करवा के बहुत थोडा मुआवजा देकर फिर बड़े बिल्डरों को बेच कर करोड़ों रुपया बनाते है पुरे देश में यही हाल है (३) लोकपाल, जिसके लिए सिविल सोसाइटी संघर्षरत है अब इसको बन ही जाना चाहिए नहीं तो संविधान में ही संसोधन करके प्रवाधान किया जाना चाहिए ? (४) आरक्षण प्रक्रिया को समाप्त करना या उसमे सुधार करना शामिल हो : आरक्षण का दंश पिछले ६४ वर्षों से उन गरीब और पिछड़े सवर्णों को डस रहा है जिनके पास साधन नहीं है शिक्षा तो है लेकिन वह किसी काम नहीं आती क्योंकि कम अंको के आधार पर भी साधान संपन्न और आर्थिक रूप से सुदृढ़ अनुसूचित लोगो को प्राथमिकता दी जाती है इस लिए आज के परिपेक्ष्य में इस आरक्षण प्रक्रिया को दुबारा से व्यस्थित किये जाने की आवश्यकता है जिसमे जातिगत आरक्षण न होकर केवल आर्थिक आधार पर ही आरक्षण हो ? (५) राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया में सुधार ही नहीं आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता, देश के प्रथम नागरिक का चुनाव हो और उसको चुनने से जनता ही वंचित हो तो फिर कैसा चुनाव ? आज की स्थिति में संसद के ७७६ सांसद और विधान मंडलों के सदस्य राष्ट्रपति को चुनते है और सबसे बड़ी बात यह है की देश में राष्ट्रपति का अपना कोई अधिकार नहीं है वह केवल और केवल केंद्रीय मंत्री मंडल की सलाह पर ही कोई आदेश जारी कर सकता है जबकि राष्ट्रपति तीनो सेना का सर्वोच्च कमांडर भी होता है पर स्वयं के अधिकार कोई नहीं है यह तो ऐसा ही हुआ जैसे ७७६ गूंगे एक बहरे व्यक्ति को अपना मुखिया चुन ले, और मौज से देश की सत्ता के मजे लेते रहे ? इस लिए बाबा साहेब आम्बेडकर द्वारा रचित हमारे उस ग्रन्थ को संसोधित करने का उचित समय है जिसमे राष्ट्रपति का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से जनता के द्वारा होना चाहिए और उसके अधिकार भी व्यापक होने चाहिए अन्यथा अधिकार रहित कोई राष्ट्रपति हो या न भी हो कोई फर्क नहीं पड़ता ?

एसपी सिंह , मेरठ

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