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भाजपा के भावी उद्धारक या एक तानाशाह व्यक्तित्व ?“Jagran Junction Forum”

पाठक नामा -
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वास्तव में “Jagran Junction Forum” द्वारा यह बहस ही बेमानी है कि “नरेन्द्र मोदी भाजपा के भावी उद्धारक या एक ताना शाह व्यक्त्तित्व /” चूँकि यह समय तो इस बात कि बहस का है कि अगला राष्ट्रपति कौन बनेगा परन्तु भाजपा का पितृ पक्ष (विचारधारा का मार्गदर्शक संघठन ) देश का एक सबसे बड़ा सांस्कृतिक संघठन और हिन्दुत्त्व का हिमायती पक्ष जो कि अपने जन्म के ८७ वें वर्ष में प्रवेश करने बाद भी १२७ वर्ष पुरानी राजनितिक पार्टी को पूरी तरह परास्त करने में अपने राजनितिक संघठन भाजपा के आपसी निहित स्वार्थ और राजनितिक महत्वाकांक्षा के कारण सक्षम न हो सका और अपने आपको ठगा सा पा रहा है ? चूँकि आर एस एस की हिंदूवादी विचार धारा और भारतीय राजनीती का कोई संगम न तो संभव है और न ही फलीभूत हो सकता है इसी कारण से १९९९ में जब आदरणीय अटल बिहारी बाजपाई जी के नेतृत्व में जो राजाग की केंद्र की सरकार बनी उसमे सारे हिंदूवादी मुद्दे ही ठन्डे बसते में डाल दिए गए थे, और श्री अडवाणी ने जब अपनी छवि उदारवादी बनानी चाही तो आर एस एस ने ऐसी पटखनी दी कि वह आजतक उससे उबर नहीं पायें हैं, जबकि श्री आडवाणी अपने साफसुथरे राजनितिक सफ़र और बुद्धि कौशल के कारण बाजपाई के बाद राजग के सभी पक्षों को स्वीकार्य नेता के रूप में जाने जाते रहे हैं. और अब भाजपा में एक खोखला पन सा महसूस हो रहा है, चूँकि वर्तमान अध्यक्ष न तो राजनीती में परांगत है और न ही सांगठनिक कौशल ही है इस लिए पितृ संघठन को घबराहट होना स्वाभाविक है अत: दो वर्ष पहले से ही राष्ट्रपति चुनाव के बहाने अपनी ताकत को परखने कि चाह ने ही यह सब करने को मजबूर किया होगा इसीलिए नरेन्द्र भाई मोदी के नाम को आगे कर दिया अगले प्रधान मंत्री के पद के लिए हालांकि इसकी कोई औपचारिक घोषणा नहीं कि गई है, और आर एस एस यहीं चूक गई और अपने घटक के एक अतिविश्वनिया साथी को खोने कि कागार पर पहुँच गई है ?

जैसे-जैसे वर्तमान प्रधानमंत्री का कार्यकाल समाप्त होने जा रहा है वैसे-वैसे यह बहस भी तेज होती जा रही है कि भारत के अगले प्रधानमंत्री पद का सबसे प्रमुख दावेदार कौन है. अंतर्विरोध के हालातों से जूझ रही देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टी भाजपा की तरफ से नरेंद्र मोदी की दावेदारी को प्रमुख माना जा रहा है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि गुजरात में नरेंद्र मोदी ने अपनी छवि एक विकास करने वाले व्यक्ति कि बनाई है लेकिन इसके साथ ही तानाशाही करने जैसे कई बड़े आरोप भी के भागीदार भी हैं.. हाल ही में संजय जोशी और नरेंद्र मोदी के विवाद में भी नरेंद्र मोदी ने उन्हें पार्टी से बेदखल करवाकर अपने तानशाह व्यवहार की पुष्टि कर दी. हम इस बात को नकार नहीं सकते कि योग्य होने के साथ-साथ भाजपा में भी नरेंद्र मोदी का प्रभाव बहुत अधिक है लेकिन क्या उनका प्रधानमंत्री बनना तानशाही को निमंत्रण देने जैसा है? वैसे भी अगर कोई व्यक्ति अपने प्रदेश के साथियों को अपने साथ नहीं जोड़ सकता तो उसे विरोधियों कि जरूरत क्योंकर होगी अपने साथी ही टांग खींचने में सक्षम है इस लिए भाजपा, आर एस एस और नरेन्द्र मोदी के स्वयं कि यह सोंच कि वह देश के भावी प्रधान मंत्री बन जायंगे शायद “अंगूर और लोमड़ी ” वाली कहावत ही सही फिट बैठेगी . जहाँ तक बात गुजरात प्रदेश के समृद्ध होने कि है गुजरात प्रदेश बहुत पहले से ही छै करोड़ गुजरातियों कि मेहनत के बल पर समृद्धि कि सीमा को तोड़ चूका था नरेन्द्र मोदी ने तो गुजरात कि समृद्धि को अपनी मार्केटिंग के लिए केवल उपयोग किया है और उसका पूरा फायदा उठाया है लेकिन फिर भी बहुत से लोगों का यह मानना है कि नरेंद्र मोदी के ही कारण गुजरात देश का एक प्रमुख राज्य बन पाया है. और मोदी ने अपने आप को गुजरात का सबसे बड़ा और लोकप्रिय ब्रांड स्थापित करने के बाद नरेंद्र मोदी अब संपूर्ण भारत के विकास और प्रगति के लिए भी उपयोगी होने के लिए संघर्षशील हैं . भले ही गुजरात में हजारों मुश्लिम नरेंद्र मोदी कि हिंदूवादी विचार धरा के कारण दंगों में अपनी जान गवां चुके हो और उनके क़त्ल के आरोप नरेन्द्र मोदी पर रहे हैं लेकिन इसके बाद उनका प्रदेश आश्चर्यजनक रूप से पूरी तरह शांत और सुरक्षित है तो क्या यह नरन्द्र मोदी का राजनितिक कौशल है या कुछ और ? वहीं दूसरी ओर मोदी का अपनी ही पार्टी में विरोध करने वाले लोगों की भी कोई कमी नहीं है. इनका कहना है कि नरेंद्र मोदी एक अहंकारी और तानाशाह किस्म के व्यक्ति हैं. वह अपने अलावा किसी को कुछ नहीं समझते. हर हाल में अपनी जिद मनवाने वाले नरेंद्र मोदी खुद को भाजपा हाईकमान के रूप में प्रचारित करने लगे हैं, जबकि आज भी भाजपा में आडवाणी जैसे कई वरिष्ठ और अनुभवी नेता मौजूद और सक्रिय हैं. भाजपा के इतिहास में किसी ने पार्टी की नीतियों और आदर्शों का उल्लंघन नहीं किया लेकिन वह एक अपवाद के रूप में अपनी पहचान बनाने पर तुले हुए हैं. पार्टी में भले ही उनका रुतबा बढ़ गया हो लेकिन सवाल यह है कि क्या हमें ऐसा ही कट्टर हिंदूवादी प्रधानमंत्री चाहिए जो पार्टी के साथ-साथ देश को भी अपने अनुसार ही चलाना चाहे. शायद जनता का उत्तर न में होगा ? क्योंकि सबसे बड़ी बात यह है कि अगर मान लो नरेन्द्र मोदी देश के प्रधान मंत्री बन भी गए तो क्या दुनिया का सबसे बड़ा दादा अमेरिका उस हालात में नरेन्द्र मोदी को अमेरिका का वीजा प्रदान कर देगा या अमेरिका आने कि इजाजत देदेगा ?

1. मोदी का तानाशाह रवैया उन्हें किस सीमा तक समस्त भारत की जनता के लिए स्वीकार्य बना सकता है? भारतीय परिपेक्ष्य में कोई भी अति कट्टरवादी नेता न तो देश को स्वीकार्य होगा और न ही ऐसा व्यक्ति कभी प्रधान मंत्री बन सकता है जब तक लोकतंत्र में गिनती का खेल चलेगा :?
2. आज भी भाजपा में आडवाणी जैसे कई नेता मौजूद हैं तो ऐसे में नरेंद्र मोदी खुद को राष्ट्रीय पहचान दिलवा पाने में कितना सफल हो सकते हैं? आदरणीय अटल बिहारी बाजपाई जी के बाद न तो भाजपा में उनके कद का कोई उदारवादी नेता है और न होगा क्योंकि आर एस एस कि विचारधारा से मेल खाने वाला नेता उदारवादी हो ही नहीं सकता, लेकिन आदरणीय लाल कृष्ण आडवाणी इसके अपवाद स्वरूप ही है कि उन्होंने कट्टरवाद कि अपनी छवि को उदार बना लिया था जो आर एस एस को पसंद ही नहीं है ?

3. ब्रांड गुजरात के बाद क्या मोदी ब्रांड इंडिया श्रृंखला बना पाने में भी सफल हो पाएंगे? यह तो शायद ऐसा ही होगा कि नौ सौ चूहे खा का बिल्ली हज को चली, शायद ऐसा हो पाना संभव ही नहीं होगा कि कोई व्यक्ति अपने राज्य में ही वहां के गैर समुदाय के हजारों लोगों कि निर्मम ह्त्या के आरोपों में होने के बाद भी दिल्ली कि गद्दी संभालने के दिव्यास्वपन देखने में मशगूल हो. इसका फैसला तो जनता या फिर ऊपर वाला इश्वर ही कर सकता है ?

4. सबसे अहम सवाल, क्या भाजपा में चल रहा अंतर्कलह उसको मुख्य विपक्षी दल से सत्ताधारी दल में रूपांतरित करने में एक बड़ी बाधा सिद्ध होगी? अब हमें या आपको इस विशय में कुछ भी कहने कि जरूरत ही नहीं है यह तो अब नरेंद्र मोदी और आदरणीय गडकरी दोनों मिल कर कर ही रहे है सत्ता में आने का सवाल तो तब पैदा होता है जब सबसे बड़ा दल अपने विपक्षी स्वरुप को ही बनाए रखने में सक्षम हो- आजतक भाजापा विपक्षी होने का कोई सबूत नहीं दे पाई है यह इसी बात से प्रमाणित होता है कि राष्ट्रपति पद पर अपनी ही पार्टी का कोई प्रत्यासी तक नहीं उतार पाई क्या यह अंतर्कलह का लक्षण नहीं है ?

चूँकि यह अस्तित्व कि लड़ाई है एक और अति कट्टरवादी हिन्दुत्त्व के पक्षधर और दूसरी और धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार लेकिन इस सबका फैसला तो २०१४ के होने वाले लोकसभा के चुनाव में ही हो सकेगा इससे पहले तो दोनों ही पक्ष अपनी अपनी खेमे बंदी में सारी ताकत लगा रहे है अंतिम फैसला तो जनता ही करेगी जो सर्वोपरि है और होगा ?

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