Menu
blogid : 2445 postid : 722

खाली हाथ !!!!

पाठक नामा -
पाठक नामा -
  • 206 Posts
  • 722 Comments

चूँकि वर्तमान में शासनारूढ़ राजनितिक पार्टी न तो भ्रष्टाचार और न ही महंगाई से जनता को निजात दिला पाई है इस लिए वर्तमान समय की पुकार और नैतिकता के हिसाब से उसे राज करने का कोई अधिकार नहीं है उसे स्वयं ही सत्ता से अलग हो जाना चाहिए था ? लेकिन सत्ता की चाशनी ही ऐसी है की एक बार उसे चखने के बाद कोई भी व्यक्ति/ दल/मंत्री /संत्री उसको छोड़ना नहीं चाहता जब तक इन्तजार करता है जब तक जनता अपने वोट रूपी डंडे से मार कर बाहर न करदे. इसी कारण इक्का दुक्का छुट-भैय्ये किस्म के लोग भी समाज सेवा/धर्म कर्म/ समाज सुधार /भ्रष्टाचार के नाम पर (charitable trust ) का लबादा ओढ़ कर आन्दोलन करते नजर आते है यही कारण है की आज देश में इतने धर्मार्थ-न्यास कार्यरत है जितने उसका उपयोग करने वाले नहीं है ?,

ऐसा भी नहीं है की कोई आन्दोलन रातों रात करवट बदलते ही तैयार हो जाता है – क्योंकि इतिहास बताता है की अत्याचार, जुल्म, मनमानी,चोरी डकैती, भूख, भ्रष्टाचार के शिकार प्रत्येक मनुष्य के दिल में क्रोध होता है जो धीरे धीरे लावा बनता जाता है उसको निकलने के लिए उचित समय और रास्ते का इन्तजार रहता और जब कोई मसीहा बन कर उसके सामने आता है जनता की लड़ाई लड़ने की बात भर करता है तो पूरा जन-समूह उसके पीछे-पीछे चल पड़ता है ऐसा ही विगत में और वर्तमान में दिख रहा है परन्तु क्या मसीहा बने व्यति या समूह का भी मंतव्य , अत्याचार, जुल्म, मनमानी,चोरी डकैती, भूख, भ्रष्टाचार और शासन के नाकारेपन से लड़ने का होता है या अपना हित साधन इसमें फर्क करना वर्तमान समय में काफी कठिन है लेकिन अगर भूतकाल की बात करे तो ऐसा लगता है की मसीहाओं का उद्देश्य तो जनता का भला करना ही था लेकिन शासन करने वालों की सत्ता की भूख ने सबकुछ चौपट कर दिया ? इस लिए वर्तमान दोनों आंदोलनों का विश्लेषण करना जरूरी सा हो जाता है ?

सत्ता के गलियारों से यदा कदा यह कहा जाता ही नहीं अपितु यह आवाज भी उठती है की इन आंदोलनों को खड़ा करने और जवलंत मुद्दे उठाने में देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक संघठन और उसकी राजनितिक शाखा का वरदहस्त है क्योंकि उसकी राजनितिक शाखा देश की सबसे बड़ी विरोधी पार्टी चुनाओं में आशानुकूल प्रदर्शन करके सत्ता में नहीं आ सकी इस लिए अगले चुनाव में उसे कम से कम उसके लिए १० से २० प्रतिशत मतों में बढ़ोतरी चाहिए इस लिए इस बात में कुछ तथ्य भी नजर आता है क्योंकि जब भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन को जनता ने सराहा तो आयोजकों को भी अच्छा लगा की जनता का रिस्पोंस मिला और वे दुगने उत्साह से आन्दोलन को आगे बढाने में लग गए भले ही आन्दोलन विसंगतियों से भरपूर रहा हो , लेकिन अचानक ऐसा लगा की आयोजकों की मांग बढती गई जिसको सरकार के लिए मान लेना आत्म हत्या के सामान ही था तो क्या आयोजक नौसिखए हैं या कम पढ़े लिखे हैं बिलकुल नहीं ( क्योंकि आन्दोलन के सभी आयोजक स्वयं अपने एन जी ओ सफलता पूर्वक चलाते रहे हैं.) परन्तु जब आयोजकों ने यह महसूस किया कि जनता तो उनकी दीवानी है ( गैर हिंदी भाषी प्रान्तों को छोड़ कर ) तो उन्हें लगा कि इस वैतरणी में क्यों न अपना भाग्य भी आजमा लिया जाय ? तो फिर क्या था मैदान भी है जनता (ताली बजाने वाली ) भी है/ लेकिन एक गैर राजनितिक आन्दोलन चलाने वाले ९ दिन तक भूखे रह कर अचानक कैसे दिव्य ज्ञान को प्राप्त करके राजनितिक चोला पहन कर जनता के सामने आ गए/ इसका सबसे बड़ा कारण जो सबके सामने है कि किसी भी आन्दोलन को चलाने के लिए जनता का जुड़ना अत्याधिक जरूरी होता है और इंडिया अगेंस्ट करप्सन वालों के पास समर्थक तो खूब है और उनके साथ जुड़े भी लेकिन वह सब व्हाईट कॉलर सभ्य लोग ही है वह केवल फेस बुक, ट्विटर , ब्लॉग, नेट और दूर संचार के त्वरित माध्यमों के माध्यम से प्रचार तो कर सकते है सड़कों पर उतर कर आन्दोलन नहीं कर सकते, उसके लिए संगठित, अनुशासित और और कर्मठ कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है वही इनके पास नहीं था जिसकी आलोचना बाबा रामदेव ने भी जंतर मंतर जम कर की थी इसी लिए जब तक उस संघठन ने साथ दिया खूब भीड़ दिखी और जब उन्होंने हाथ खीच लिया तो भीड़ नदारद थी फिर तो जो होना था वही हुआ और सांसदों और संसद को पानी पिए बिना कोसने के बाद उसकी सर्वोच्चता को स्वीकार करके आन्दोलन कि ह्त्या के भागीदार बने वह तो अच्छा हुआ संत सरीखे श्री अन्ना हजारे ने इन नौसिखिये आन्दोलनकारियों की इज्जत ही नहीं बचाई बल्कि देश को संभावित गृह युद्ध कि विभीषिका से बचा लिया ?
काले धन के विरुद्ध विभिन्न सांस्कृतिक संघठनो की सहायता से आन्दोलन को ६ दिन तक सफलता पूर्वक चला कर भी सरकार की चूलें भले ही हिला दी हो परन्तु साकार कि चुप्पी को नहीं तोड़ सके / शायद गुरूजी की नित नई पैंतरे बाजी के कारन ही सरकार भी किसी भी प्रकार की वार्ता की कोई पहल नहीं की / तीन दिन तक चुप रहने के बाद सरकार और सत्ता में बैठी पार्टी का विरोध का ऐलान ही नहीं अपितु ४-५ जून २०११ की काली रात की रामलीला की यादों को याद कर कर के सकार को जितना कोस सकते थे उतना पुण्य कार्य करने के बाद आखिर में अपनी पार्टी की घोषणा किये बगैर ही अपने अनुयायियों के बल पर सरकार और पुलिस को जितना भी तनाव दे सकते थे उतना तनाव देकर राम लीला समाप्त कर दी ? लेकिन ऐसा तो होता ही है कि जब आदमी चारों ओर से तनाव में हो तो कुछ अमर्यादित शब्द भी कह देता है जैसे १३ तारिख को सरकार कि तेहरवीं कि बात कह कर (शायद वह अपनी सन्यासी कि मर्यादा को विस्मृत कर बैठे कुछ अपवादों को छोड़ कर , क्योंकि किसी सन्यासी को तो अपने जैविक माता पिता की तेहरवीं तो अलग अंतिम क्रिया मुखाग्निभी देने की भी इजाजत नहीं है ) फिर प्रधान मंत्री को कुर्सी छोड़ कर सिख धर्म की मर्यादा का पाठ भी पढ़ाने से नहीं चूके अंत में राजनितिक लोगों से दूरी बना कर चलने वाले सन्यासी ने अपना आन्दोलन घाघ और दिग्गज राजनितिक लोगो की जुंटा के सामने दंडवत होकर जिस प्रकार समर्पण किया उसको सबने देखा है ? पर एक बात सही है की बाबा ने ४-५ जून २०११ की उस काली रात की बर्बर कार्यवाही जिसमे बाबा किसी महिला के कपडे पहन कर अपनी जान बचा कर भागने की कोशिस में पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए थे और फिर हरिद्वार जाकर छोड़े गए थे उसमे बाबा का अपमान ही बल्कि नहीं कुछ लोगो द्वारा बहुत आलोचना हुई थी उसका बदला बाबा ने १२,१३,और १४ अगस्त को दिल्ली के रामलीला मैदान से लेकर आम्बेडकर स्टेडियम तक जम कर पुलिस की नाक में दम कर के ले लिया है और किसी स्वयंभू सेना कमांडर के समान अपने आप को विजयी भी घोषित कर दिया

अगर कोई इन आंदोलनों को निष्पक्ष हो कर देखे तो , दोनों आन्दोलन अगर सांस्कृतिक शाखा के इशारे पर चल रहे थे तो यह उस संघठन के विरुद्ध घोर पाप ही नहीं देश की जनता के प्रति भी धोखे से कम नहीं चूँकि अगर वोट बैंक के अनुसार विश्लेषण किया जाय तो इन दोनों आन्दोलन कारियों का वोट बैंक का आधार क्या है इनका आधार भी तथाकथित भगवा खेमे से टूटकर आएगा या फिर जो लोग सत्ताधारी पार्टी से विमुख होंगे वे आयंगे ? क्योंकि अब तक जो भीड़ के रूप में जनता का सैलाब इन आंदोलनों में आता रहा है उसमे अधिकाँश भाग सांस्कृतिक संघठन के अनुशासित स्वयंसेवकों का ही था / ऐसा लगता है की अब चाहे समाज सेवी हो या नेता हो अभिनेता हो सांस्कृतिक संघठन हो सब का अन्तिम लक्ष्य ही राजनीती है ? क्या यह इस देश की जनता का दुर्भाग्य है कि वह हर बार ठगी जायगी चाहे सिविल सोसाइटी के द्वारा या फिर किसी गुरु सन्यासी के द्वारा क्या यह आंदोलनों का ढोंग किसी राजनितिक पार्टी के इशारे पर केवल वोट बैंक का प्रतिशत बढाने का टोटका भर ही रह गया या इन कार्यक्रमों से अवश्य ही कोई बदलाव होगा – या प्रणेता के हाथ खली ही रहेंगे यह तो २०१४ ही बताएगा क्योंकि सब का लक्ष्य भी यही है न कि काला धन या भ्रषाचार ?????? (नोट : मेरा यह लेख वर्तमान आंदोलनों के विषय में लगभग अंतिम ही है चूँकि मेरे विश्लेषण के अनुसार इनका समापन जिस प्रकार से होना था वैसा ही हुआ इस लिए मैं तो इन आन्दोलनकारियों की दीर्घ आयु की कामना करते हुए इस लेख को समाप्त कर रहा हूँ . ) इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता की देश में भ्रष्टाचार इस कदर बढ़ गया है की आम ही नहीं ख़ास आदमी का जीवन भी कठिनाई में पड़ गया है इसी लिए जहाँ भी कोई छोटी मोटी घटना होती है लोग बढ़ चढ़ कर भाग लेते है और उत्तेजित हो जाते है तो फिर कोई आन्दोलन राज्य स्तर या फिर अखिल भारतीय स्तर पर किया जा रहा हो तो जनता का भारी संख्या में भाग लेना निश्चित ही है लेकिन यह भी सत्य है की इन आंदोलनों में भाग लेने वाले वे लोग भी शामिल होंते है जो सरकारी दफ्तर में बैठ कर सारा दिन भ्रष्टाचार में लिप्त रहते है लेकिन उनके अंतकरण में भी इस बुराई से लड़ने का जज्बा रहता है इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता पर अगर आन्दोलन करने वाले मसीहाओं के दिल में ही खोट हो तो बेचारी जनता कहाँ जाय ? इस लिए अब वह समय भी दूर नहीं जब ( अराजनैतिक आंदोलनों को राजनीती की दलदल में फ़साने का कुचक्र रचाने वाले ) ऐसे जनता द्रोही छद्म आन्दोलन चलाने वाले लोगों और भ्रष्टाचार करने वाले नेताओं पर जनता स्वयं ही कार्यवाही ( डाईरेक्ट एक्सन के द्वारा ) करके जनता की आदालत में ही देश द्रोह का मुकदमा चला कर इन लोगों को चौराहों पर फांसी पर ही लटका जायगा —— एसपी सिंह.मेरठ

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh