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देश के प्रत्येक व्यक्ति को हमारे संविधान ने यह मौलिक अधिकार दिया कि है वह अपने मौलिक अधिकारों के अंतर्गत अपने व्यसाय, समाज सेवा,अपनी जीविका आदि आदि विषयों का चयन स्वयं अपनी मर्जी से कर सकता है अत अगर श्री अरविन्द केजरीवाल ने अपने लिए राजनीती को चुना है तो वह उनका मौलिक अधिकार ही है इसमें किसी को क्या आपत्ति होनी चाहिए या करनी चाहिए आपत्ति करना नितांत निरर्थक ही है ! क्योंकि वह एक सफल इंजिनियर थे उसके बाद वह एक सफल राजस्व अधिकारी (आयकर कमिश्नर ) थे अब अगर उनका मन इन व्यसायों में नहीं लगा तो यह उनका व्यक्तिगत मामला है ! हो सकता है कि अरविन्द केजरीवाल राजनितिक व्यसाय को अपने लिए सबसे अच्छा समझते हों ?
लेकिन समाज के लिए नासूर बन चुके भ्रष्टाचार को समाप्त करने का कार्य जो देश के विपक्षी दल या नेता नहीं कर पाए उसे पूरा करने का बीड़ा अतीत की अन्ना टीम के मुख्य चेहरे रहे मैगसेसे अवॉर्ड विनर अरविंद केजरीवाल ने उठाया था और अन्ना को सामने रख कर अन्ना नाम की एक आंधी बड़े आडम्बर पूर्ण ढंग से चलाई गयी थी जिसने भले ही कुछ समय के लिए ही लेकिन सरकार की नींद उड़ा दी थी। और आमजन को ऐसा लगा कि चलो देश में कोई तो है जो आमजन की बात करता है परन्तु इस थोड़ी सी सफलता ने आइ ० ए० सी० के कार्य कर्ताओं की मति ऐसी भ्रष्ट की, कि वह जनलोकपाल लाने के माया जाल में फंस गए और अपने उद्देश्य से भटक गए \ क्योंकि यह सर्विदित है कि कानून केवल केवल और संसद के द्वारा ही बनाया जा सकता है लेकिन सामाजिक विज्ञान में सर्वगुण संपन्न और कानूनी ज्ञान में जीरो अन्ना हजारे की साख को जिस तरह से ड्राफ्टिंग कमेटी की कल्पना को सरकार ने स्वीकार करके पूरे देश सहित कथित सिविल सोसाइटी को मृगमरीचिका के जाल में फंसाया था वह एक अभूतपूर्व घटना थी फिर भी अन्ना के नेतृत्व वाली टीम अन्ना जनलोकपाल बिल को तो पास नहीं करवा पाई लेकिन टीम के अंदरूनी मतभेदों को बढ़ता देख अन्ना हजारे को अपनी टीम को भंग करना पड़ा था ।
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अन्ना टीम के विखंडन के पश्चात इंडिया अगेंस्ट करप्शन नामक संस्था के प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने अपने दम पर राज्य और केन्द्रीय स्तर पर फैले भ्रष्टाचार को समाप्त करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं और वह यह बात पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि उनका मकसद संसद पहुंचकर सत्ता पाना नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन कर भ्रष्टाचार से मुक्त समाज की स्थापना करना है। कहने सुनने में यह सब अच्छा लगता है लोग भ्रमित भी होते है क्योंकि इंडिया अगेंस्ट करप्शन नामक संस्था के प्रमुख अरविंद केजरीवाल ही हैं और इंडिया अगेंस्ट करप्शन का अपना कोई वजूद नहीं है यह संस्था अरविन्द की जेबी संस्था है इस संस्था को फंडिंग public cause research foundation (PCRF ) से होती है जो कि केजरीवाल कि एन जी ओ है ? ऐसा माना जा रहा था कि अरविंद विपक्षी दलों के साथ मिलकर आगामी लोकसभा चुनावों के चेहरे को बदल कर रख देंगे। लेकिन अब जब उन्होंने भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर भी आरोप लगाने शुरू कर दिए हैं तो संसद तक पहुंचने की उनकी रणनीति का एक हिस्सा हो सकता है लेकिन जब आप भ्रष्टाचार से लड़ने कि बात करते है तो कमसे कम अपने आसपास के लोगों का भ्रष्टाचार भी दिखना चाहिए लेकिन उसके लिए आप राजनितिक भाषा का प्रयोग करते है कि अगर हम दोषी है तो हमें सजा दी जाय ! यहाँ यह समझना चाहिए कि समाज में सार्वजनिक जीवन की सर्वोच्च्ता तभी तक सवच्छ रहती है जब तक कि आरोपित व्यक्ति स्वयं उच्च माप दंड नहीं अपनाता यों तो सारे राजनितिक व्यक्ति अपने ऊपर आरोप लगाने पर आँय बाँय बोला करते है और अगर कोई समाज सुधारक भी उसी भाषा को बोलता है तो फिर फर्क क्या है ?
लेकिन यह भी एक अटल सत्य है कि इक्कसवीं सदी के अंत में जब आज की राजनीती और राजनीतिज्ञों का पोस्ट-मार्टम होगा तो उसमे से यही निकलेगा कि भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए जो जनता के मन में एक आश जगी थी अरविन्द नमक एक अतिमहत्वाकांक्षी व्यक्ति के कारण उस आन्दोलन कि असमय ही हत्या कर दी गई. ?
निःसंदेह अरविंद केजरीवाल का स्वघोषित उद्देश्य केवल मंत्र्मुघ्ता और मृगमरीचिका के अतिरिक्त कुछ नहीं है अतः जापानी रणनीति पर चलकर वह अपने उद्देश्य को पाने की कोशिश कर रहे हैं वह कितनी सफल होगी इस बात पर बहस शुरू हो गई है अतः इस विषय में हमारे सामने अनेकों कथानक है जहाँ इस प्रकार के प्रयत्न हुए है ! अगर बात अपने देश के करे तो अरविन्द केजरीवाल की तरह ही आयकर विभाग के एक कमिश्नर श्री राम राज जो अब उदित राज के नाम से जाने जाते है कमाल तो यह है कि उनकी पत्नी भी आई आर एस ( डेपुटी कमिश्नर ) के पद पर कार्य रत है उन्होंने ने भी १०९२-९५ इसी प्रकार से नौकरी छोड़ कर एक नयी राजनैतिक पार्टी का गठन करने से पहले दलितों का एक महासम्मेलन किया था लाखों दलितों का धर्म परिवर्तन न करवया था उनको बोद्ध धर्म में दीक्षित किया था लेकिन राजनितिक समर में वह आज भी संघर्ष करते नजर आते है जबकि उनका दलित होना भी राजनीती में कोई करिश्मा नहीं दिखा पाया जहाँ अकेली मायावती विराजमान हैं ! >
एक ओर जहां अरविंद केजरीवाल यह चाहते हैं कि वह अपने खुलासों से जनता को जागरुक करें ताकि आगामी चुनावों में वह अपने वोट का सही प्रयोग कर उन्हें संसद तक पहुंचाए। जनता की मानसिकता और उनके विचारों पर पूरी तरह से भरोसा करने के बाद अरविंद केजरीवाल सत्ताधारी पार्टी के साथ-साथ विपक्षी दलों को भी अपने आरोपों के दायरे में लेने लगे हैं। वह किसी पार्टी विशेष के नहीं बल्कि व्यक्तिगत तौर पर भ्रष्ट नेताओं की पोल खोलकर उनकी सच्चाई जनता के सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं। आदर्शवाद की राजनीति के सहारे अरविंद केजरीवाल एक वास्तविक लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना करना चाहते हैं। उन्हें इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि जिस नेता पर वह आरोप लगा रहे हैं वह किस पार्टी का सदस्य है। उनके अनुसार अगर जनता के सामने सच्चाई पेश की जाए तो वह सोच-समझकर ही अपना वोट डालेगी। अरविन्द की इस मानसिकता से जनता में केवल एक ही सन्देश जाता है जैसे कि कोई सर्जन आपरेशन करना तो जनता है लेकिन आपरेशन के बाद शरीर के उस स्थान को खुला छोड़ देता है अर्थात आधा इलाज जानने वाला डाक्टर , इस लिए केवल आरोप भर लगा देने से जनता का कोई भला नहीं होता जनता रिजल्ट चाहती है ?
वहीं दूसरी ओर अरविंद केजरीवाल की रणनीति की सफलता पर संदेह करने वाले लोगों का कहना है कि अरविंद केजरीवाल जिस आदर्शवाद को प्रधानता देकर जनता की सोच को महत्व दे रहे हैं वह उनके सभी प्रयासों को असफल कर देगा। ऐसे लोगों का मानना है कि अरविंद शायद यह भूल गए हैं कि भारत की जनता चंद रुपयों और जरा से लालच के लिए अपना वोट बेच देती है। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं जब प्रत्याशी पर लगे गंभीर आरोपों के बाद भी जनता उसे वोट देकर कुर्सी पर बैठा देती है। इसे उसकी विवशता कहें या फिर आदत लेकिन धनबल और बाहुबल के कारण जनता अपना वोट बेचने में देर नहीं करती। यह सब जानने के बाद भी अगर अरविंद जनता के विचारों को प्रमुखता देकर सत्ताधारी पार्टी के अलावा अन्य विपक्षी दलों से भी लोहा ले रहे हैं तो यह उनकी सबसे बड़ी नासमझी है।
अगर वह यूपीए गठबंधन के खिलाफ मोर्चा खोल रहे हैं तो उन्हें चाहिए कि कम से कम विपक्षी दलों को तो अपने साथ रखें ताकि अगले लोकसभा चुनावों में उन्हें राजनीतिक समर्थन की कमी ना खले क्योंकि भारत का राजनैतिक इतिहास इस बात का गवाह है कि एक सच्चे इंसान के लिए जनता तालियां तो बजा सकती है लेकिन जब बैलेट बॉक्स में वोट डालने की बात आती है तो जनता की आंखें ग्लैमर और पैसे की वजह से चौंधिया जाती है। अगर केजरीवाल सभी राजनीतिक पार्टियों को अपना दुश्मन बना लेंगे तो उनका संसद तक पहुंचने का सपना कभी सच नहीं हो पाएगा क्योंकि अकेला चना कभी भांड नहीं फोड़ सकता।
अरविंद केजरीवाल जिस रणनीति पर कार्य कर रहे हैं उसके दोनों पक्षों पर विचार करने के बाद निम्नलिखित प्रश्न हमारे सामने आते हैं, जैसे:
1. अरविंद केजरीवाल की रणनीति की सफलता पर संदेह रखने वाले और जनता की क्षमता को कम आंकने वाले लोगों का पक्ष कितना व्यवहारिक है?
अरविन्द की रणनीति कि सफलता पर संदेह जो लोग करते है शायद वह सही है क्योंकि हमने देखा है कि हमारे पड़ोस के देश में एक बहुत ही मशहूर क्रिकेटर थे इमरान खान जो अब राजनेता बन गए है और पिछले दस वर्षो से सुचिता और मानवता की अलख जगा कर अपने देश में बदलाव करना चाहते है लेकिन आज तक सफल नहीं हुए हैं ?
2. क्या वाकई जनता इतनी अपरिपक्व है कि वह इन सब खुलासों के बाद भी धनबल और बाहुबल के दबाव में आकर अपने वोट का सही प्रयोग नहीं कर पाएगी?
जनता की परिपक्वता पर संदेह करने वाले स्वयं ही अल्पज्ञ ही हैं क्योंकि कुछ अपवादों को इंडिया अगेंस्ट करप्शन नामक संस्था के प्रमुख अरविंद केजरीवाल छोड़ कर इस देश की जनता बहुत जागरूक है उसे केवल समय का इन्तजार रहता है सत्ता परिवर्तन के लिए जैसा कि हम विगत में देख चुके है ?
3. सत्ताधारी दल के अलावा विपक्षी दलों से भी लोहा लेकर क्या अरविंद खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं?
अगर कोई पार्टी/ व्यक्ति/ संस्था इतनी सक्षम है कि वह चारों दिशाओं में युद्ध कर सकता है तो उसे जरूर ऐसा करना चाहिए नहीं तो खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मरना तो एक मुहावरा है मैं इसको यह कहूँगा कि व्यक्ति आत्महत्या की ओर अग्रसर है ?
4. क्या अरविंद केजरीवाल को अपनी रणनीति पर एक बार दोबारा विचार करने की जरूरत है?
रणनीति पर पुनर्विचार केवल योग्य जनरल ही करते है जिनको युद्ध जितना हो आत्म-मुग्द्ध एवं अतिमहत्वाकांक्षी व्यक्ति या नेता ऐसा नहीं करते उनका लक्ष्य केवल सत्ता को गले लगाना मात्र होता है ? सत्ता के द्वारा समाज में सामाजिक परिवर्तन राजनेताओं या राजनीती के द्वारा असंभव ही है राजनीती के द्वारा केवल धन और बल से कद ऊँचा होता है ?
यहाँ यह बात ध्यान योग है की रणनीति फ़ौज के जनरल युद्ध के समय बदलते है और जीतने का हर संभव प्रयास करते ही नहीं कभी कभी हारी हुयी जंग को भी जीत में बदलने की क्षमता रखते परन्तु राजनेता व्यापारी आदि अपनी रणनीति केवल फायदे के लिए ही बदलते है जिस काम में फायदा होता है उसी निति पर काम करते हैं. ?
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