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यूँ तो भारत को स्वतंत्र हुए कुल जमा 66 वर्ष ही हुए। है इस बीच में आदर्श विचार वाले स्वतंत्रता सेनानी और स्वतंत्रता के पुजारी चरित्र वाले व्यक्तियों का या तो जीवन समाप्त हो गया है या फिर राजनेता बन कर आराम की जिन्दगी जीने के लिए लम्बी तान का सो गए है। लेकिन बाकी बचे हम, और हम तो अभी सवतंत्रता का सम्मान तो दूर उसका मतलब भी नहीं समझ पाए है। अगर कुछ सीखे है तो वह है उद्दण्ता, अमर्यादा , मक्कारी, बेईमानी और दूसरों पर ऊँगली उठाना। इसका कारण कुछ भी हो सकता है। असमान पूंजी बटवारा, शोषण, गुड़ -गर्वनेस, अधूरी शिक्षा, लचर स्वास्थ्य सेवा, त्वरित न्याय की कमी, बेरोजगारी, आदि आदि।
एक ओर जहां भारतीय लोक तंत्र की आत्मा उसका संविधान है जिसके अनुसार जनता अपने शासकों का चयन करती है वहीँ दूसरी ओर चुने हुए प्रतिनिधि ( चाहे पंच्यात का सदस्य हो प्रधान हो, नगर पालिका का मेंबर हो, एम् एल ए हो या फिर एम् पी हो ) एक बार चयनित हो जाने के बाद अपने आपको एक सेवक से अधिक शासक ही नहीं जनता का मालिक समझने लगते है। इसी लोकतान्त्रिक व्यस्था का सहारा लेकर कुछ भ्रष्ट/बदमास/गुंडे/मवाली/माफिया/ भी इस चुनावी प्रक्रिया के द्वारा स्थान पा ही जाते हैं। और अपनी आदतों के अनुसार कैसे कैसे कारनामे करते है इस विषय में लिखना भी उचित नहीं लगता। लेकिन सबका मूल एक ही है धन संग्रह या अपने आश्रितों और सहयोगियों को उपकृत करना या व्यभिचार और भ्रष्टाचार करना।
ऐसा भी नहीं है कि यह रोग केवल विधायिका या कार्य पालिका में ही है यह रोग न्यायपालिका में भी यदा कद दर्शन दे ही देता है परन्तु फिर भी गाहे बगाहे उदाहरण स्वरूप कुछ ऐसे निर्णय आ ही जाते है जिसका स्वागत न करना नैतिकता से मुहँ मोड़ना जैसा ही होगा। माननीय सर्वोच्च न्यायालय का एक छोटा सा आदेश जिसके द्वारा जन प्रतिनिधित्त्व कानून की धारा 8 में बदलाव किया गया है उसका असर भी दिखने लगा है। दो भूत पूर्व जन नायक वर्तमान में सांसद आज जेल में सजा भुगतने के लिए मजबूर हो गए है। अब तो ऐसा ही लगता है की असाधारण परिस्थितियों के कारण जो अध्यादेश आननफानन में लाया गया था उसका उद्देश्य ही ऐसे लोगों को बचाना ही था लेकिन साथ ही यह भी बहुत अजीब लगता है की जब इस बदलाव को संसद ( लोकसभा ) से पास करा ही लिए गया था तो फिर अध्यादेश की जरूरत ही क्या थी जहाँ लगभग देश की सभी राजनितिक पार्टियों एक राय थी। परन्तु ऐसे कौन से कारण थे जिकने चलते सभी पार्टियाँ विरोध के सुर बोलने लगी और अपने आपको ही अपराधी समझने की होड़ सी लग गई ? लेकिन यह सब लोक दिखावा यूँही नहीं था शायद इसका सबसे बड़ा कारण 5 राज्यों में आसन्न चुनाव ही थे
लेकिन ऐसा लगता है की 5 राज्यों में आसन्न चुनाव को देखते हुए राजनितिक पार्टियों को यह दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ होगा कि चलो इसी बहाने से सजा याफ्ता लोगो को चुनावी प्रक्रिया से दूर ही रखा जाय और उन्होंने ने इस अध्यादेश का विरोध करना आरम्भ कर दिया लेकिन तभी नेपथ्य से प्रकट होकर शासक पार्टी के उपाध्यक्ष आपे से बहार हो गए और अध्यादेश की ऐसे तैसी कर दी और इस प्रकार से अध्यादेश अपनी गति को प्राप्त हो गया। जहां राजनितिक पार्टिया गुपचुप तरीके यानि संसद के अन्दर सेलेक्ट कमेटी के द्वारा विचार विमर्श करके सर्वोच्च न्यायलय के आदेश को निष्प्रभावी बनाना चाहते थे वहीं सत्ता पक्ष खुले आम अध्यादेश के द्वारा इस को निष्प्रभावी करना चाहता था। लेकिन अभी तो यह अध्याय बंद ही हो गया है। लेकिन जैसा की विदित ही है राजनितिक संभावनाओं और सांप सीढी का खेल जैसा ही है एक पल में शिखर पर होता है और एक पल में धरातल पर। अब जैसे जैसे सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का प्रभाव होना आरम्भ हुआ है पार्टियों को अपने दागी दिग्गजों को सुरक्षित रखने की चिंता भी सताने लगी है।
एक प्रदेश में हुए फर्जी मुठभेड़ों की जांच माननीय सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश के अंतर्गत सरकारी तोता यानि सी बी आई कर रही हैः लेकिन जैसे ही इस जांच की आंच वर्तमान मुख्य मंत्री के पास तक पहुँच रही है वैसे ही प्रतिपक्ष की पार्टी को चिंता हो रही है क्योंकि वर्तमान में पार्टी ने सारा दांव इस होनहार व्यक्ति पर ही लगा रखा है। तो डेमेज कंट्रोल के लिए भारत के पूर्व कानून मंत्री और वर्तमान में उच्च सदन में नेता प्रतिपक्ष को या तो दिव्य ज्ञान प्राप्त होता है या गल्ती का एहसास होने पर प्रधान मंत्री को एक लम्बा पत्र लिखते है कि ” आपकी सी बी आई हमारे लोकप्रिय मुख्य मंत्री और प्रधान मंत्री पद के प्रत्याशी को फर्जी मुकद्दमों में फ़साना चाहती है।” अब या तो यह गूढ राजनितिक खेमे बंदी है या फिर पार्टी अपने चहेते प्रत्याशी से पीछा छुडाना चाहती है – क्योंकि आश्चर्य इस बात का है कि क्या पूर्व कानून मंत्री को यह ज्ञान नहीं है की वर्तमान जांच माननीय सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश में हो रही है और कोई आपत्ति है तो सीधे सर्वोच्च न्यायालय जाया जा सकता है जहां अपनी बात को प्रभावी रूप से कहा जा सकता है। लेकिन ऐसा न करके वह सरकार से गुहार लगा रहे है जैसे कह रहे हों आज आप हमें अपने सरकारी तोते से बचा लो अगर कल आपको जरूरत होगी तो हम भी आपको उपकृत कर देंगे।
इस लिए यह स्वाभाविक रूप से यह कहा जा सकता है कि राजनितिक पार्टिया भी सारे स्थापित मानदंडो को किनारे लगा कर केवल लाभ हानि के फार्मूले पर ही व्यहार करती नजर आती हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि सब राजनितिक पार्टियां आपस में मौसेरे भाइयों के समान ही है तो फिर केवल चोरों को ही मौसेरा भाई क्यों कहा जाय इसलिए “चोर चोर मौसेरे भाई” की कहावत को समात ही कर देना चाहिए।
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