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कटाक्ष का मतलब ! गुड खाओ गुलगुले से परहेज करो ?

पाठक नामा -
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आरo एसo एसo प्रमुख, आदरणीय मोहन भगवत जी ने विजयादशमी पर्व पर अपने संबोधन में कह कि ” वोट करने से पहले उम्मेदवार का चरित्र भांपने के साथ सम्बंधित पार्टी की नीतियों को भी परखें \ हमें मुद्दों पर मतदान करना चाहिए | उन्ही दलों को वोट देना चाहिए तो राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखे और उन्ही उम्मीदवारों को जितना चाहिए जो इमानदार हों ? ” साथ ही उन्होंने कहा ” संघ राजनीति में नहीं पड़ता उल्टा राजनीति संघ की गतिविधियों में बाधक बनती है ” (यह संबोधन जैसा कि दैनिक जागरण (हिंदी) के दिनांक १४/१०/२०१३ के अंक में छपा है )

आज हम तो यह समझने में असमर्थ हैं कि आखिर संघ और उसके संचालक एक साथ दो बातें दावे के साथ कैसे कह सकते है एक तो ” संघ राजनीति में नहीं पड़ता उल्टा राजनीति संघ की गतिविधियों में बाधक बनती है ” यानि दो नावों में एक साथ बैठने के समान | पहली बात तो यह कि स्वतन्त्र भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में प्रत्येक भारतीय ही नहीं विस्थापित और भारत की नागरिकता प्राप्त कोई भी विदेशी व्यस्क व्यक्ति राजनीति में हिस्सा ही नहीं ले सकता बल्कि चुनाव भी लड़ सकता और प्रधान मंत्री पद तक भी पहुँच सकता है जैसा विगत में श्रीमती सोनिया गाँधी के साथ हुआ था ? तो हमारे आदरणीय मोहन जी भगवत को राजनीति से इतनी नफरत क्यों जब कि अपने संस्कृति कार्यकलापों के अलावा संघ का सारा कार्य ही उसकी राजनितिक पार्टी को सुधारने सवांरने में बीतता है . इतना ही नहीं कभी विगत में संघ प्रचारक रहे व्यक्ति ने प्रधान मंत्री के पद को शुशोभित किया ही है और वर्तमान में भी कई संघ के कार्यकर्ता प्रदेशो के मुख्य मंत्री भी है ( झारखण्ड, मध्य प्रदेश , छत्तीस गड़, गुजरात और गोवा ) क्या इस बात से संघ इनकार कर सकता है – ?
संघ कितना भी कहे कि वह राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं रखता परन्तु उसके कार्यकलाप इस ओर भली भांति इसरा करते है चुगली खाते नजर आते है ?
पहला तो श्री आडवाणी जैसे कद्दावर नेता को केवल मुसलमानों के एक बड़े और लोकप्रिय दिवंगत नेता जिन्ना की तारीफ़ करने पर संघ के हस्तक्षेप के कारण अपने संसदीय विपक्ष के नेता पद से त्याग पात्र देना पड़ा दुसरे आदरणीय आडवानी को तब अपमानित किया गया जब भावी प्रधान मंत्री के पद पर श्री नरेन्द्र मोदी कि ताजपोशी होनी थी ? क्या यह दोनों घटनाएं राजनितिक हस्तक्षेप के प्रमाण को नहीं दर्शाती हैं ? इसके अतिरिक्त भारतीय जनता पार्टी जो कभी भारतीय जन संघ कहलाती थी उसमे कभी भी लोकतान्त्रिक रूप से चुनाव नहीं हुए है यह हम नहीं उसका इतिहास बताता वैसे इसे लोकतान्त्रिक रूप देने के लिए सारे ढकोसले किये जाते है जैसे कि अध्यक्ष का नाम संघ के निर्देश पर पहले तय हो जाता है व्यक्ति चार्ज भी ग्रहण कर ही लेता है फिर उसके चयन कि प्रक्रिया अपनाई जाती है जहां कभी भी बैलेट पत्रों का उपयोग नहीं किया गया है . जसे कि वर्तमान अध्यक्ष जब अपने पहले कार्यकाल में अध्यक्षता कर रहे थे अचानक श्री नितिन गडकरी नासिक से सीधे दिल्ली आते है और राजनाथ सिंह जी चार्ज छोड़ देते है फिर २ महीने बाद औपचारिक रूप से उनका चयन होता है चुनाव नहीं ? . इसी प्रकार जब गडकरी जी के दुसरे कार्यकाल कि चयन कि प्रक्रिया चल ही रही थी लेकिन विवादों में फंसे तो फिर उन्होंने ने त्याग पात्र दे दिया और श्री राजनाथ सिंह ने चार्ज ले लिया लेकिन उनके चयन का ऐलान बाद में किया गया ?

इसलिए महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि संघ बिना दायित्त्व के ककून में रह कर रेशम बुनना चाहता है यानि कि छद्दम रूप से राजनीती करने में विशवास रखता है जिसका अर्थ क्या हो सकता है वो ही जाने लेकिन जहां तक राष्ट्रीयता की हिमायत और हिन्दुत्त्व की ठेकेदारी का प्रशन है क्या इसका मतलब यह नहीं है कि संघ एक उचित समय और अवसर की तलाश में है जब वह अपने हिन्दुत्त्व के एजेंडे के साथ बी जे पी के अपने बंधुआ नेताओं को एक किनारे कर के अपनी हिन्दुत्त्व वादी सत्ता को ठीक उसी प्रकार से स्थापित करे जिस प्रकार से तालिबान अकेले ही इस्लामिक देशों के ठेकेदार समझते है ? यानिकि हमें उस दिन का इन्तजार करना होंगा जब भारत में इस्लामिक तालिबान का हिन्दुत्त्व वादी संस्करण देखने को मिलेगा ?

इस लिए जब संघ कि ओर से यदा कद यह हो ब्यान आते है कि संघ बी जे पी के किसी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता तो बहुत ही हास्यासपद लगता है – क्योंकि आर एस एस की ओर से कियाजाने वाले कार्य और दिया जाने वाले सन्देश राजनितिक ही होते है तो फिर राजनीति से परहेज क्यों क्या यह ऐसा ही नहीं है कि गुड खाओ पर गुड से बने गुलगुले से परहेज करों. ? परहेज भी करो तो ठीक है लेकिन दिखावा तो ठीक नहीं माना कि संघ का लक्ष्य सांस्कृतिक सुधारवाद ही है परन्तु उसमे ऐसी कोई भी बंदिश नहीं है कि राजनीति नहीं कि जा सकती – हमें ऐसा लगता है कि संघ जिस सांस्कृतिक अवधारणा कि बात करता है उसका अंतिम लक्ष्य ही राजनितिक शक्ति प्राप्त करना ही है – चूँकि वर्तमान में अपने जन्म से लेकार आज तक संघ उस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाया है इस लिए वर्तमान में आशा के केंद्र और लोकप्रिय मुख्य मंत्री को ही दांव पर लगा दिया है लक्ष्य प्राप्त हो गया तो बल्ले बल्ले और अगर नहीं प्राप्त हुआ तो एक बडबोले व्यक्ति से मुक्ति तो मिल ही जायगी ? एस पी सिंह , मेरठ .

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