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आज देश को स्वतंत्र हुए 67 वर्ष बीत जाने के बाद जहां देश ने इतनी तरक्की कि है कि संसार के सभी देश भारत की तरक्की से ईर्ष्या सी करने लगे है | सत्ता का परिवर्तन इतना सुगम है की विदेशियों को यकीन ही नहीं होता है कि भारत में सत्ता परिवर्तन बिना खून खराबे के हो जाता है | भारत कि कम्प्यूटर क्रांति तो दुनिया पर छा गई है , खाद्यान में आत्मनिर्भरता रॉकेट साइंस में महारत एवं परमाणु क्षेत्र में आत्मनिर्भरता, उपग्रह प्रक्षेपण में आत्मनिर्भरता यहां तक कि अमेरिका के मुकाबले मामूली कीमत पर मंगल गृह तक अपना यान भी सफलता पूर्वक भेज दिया जो उस पर जीवन की संभावनाओं की खोज करेगा। फिर भी ऐसा लगता है कि जनता अभी भी उतनी परिपक्क्व नहीं हुयी है जितना कि लोकतंत्र का तकाजा है ? भेड़ का स्वभाव है कि वह जब चलती है तो अपने से आगे वाली भेड़ के पिछले पैरों में अपना सर कर लेती है और उसके पीछे ही चलती चली जाती है भले ही अगली वाली भेड़ किसी खाई में गिर जाय या किसी कुएं में ही क्यों न गिर जाय बाकि पीछे चलने वाली सभी भेडें उसका अनुकरण करती है ? हमें तो लगता है कि भेड़ो में मनुष्य का DNA हो सकता है या फिर भारतीय बहुसंख्या जनता में भेड़ की किसी भी नश्ल का DNA विध्यमान हो सकता है ?क्योंकि जब हम यह देखते है किसी चरवाहे की तरह कोई धर्म गुरु यह कहता है कि मैं अमुक राजनितिक पार्टी का समर्थन की घोषणा चुनाव प्रक्रिया परिपेक्ष्य में करता है तो समर्थन स्वभावविक रूप से उसके अनुयायी को एक निर्देश ही होता है अत; समर्थन करते हुए अपना मत भी देंगे ? अभी हाल ही में महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव मध्ये डेरा सच्चा सौदा के गुरु राम रहीम ने घोषणा की वह अमुक पार्टी को समर्थन देते है ( अब इस समर्थन के बदले में क्या डील हुई है यह तो समय ही बताएगा क्योंकि धर्म गुरु पर बहुत से अपराधिक मुकदमें चल रहे है ) इसी प्रकार लोक सभा चुनाव के दौरान भी दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम ने एक पार्टी विशेष का समर्थन करते हुए मतदान का ऐलान किया था ! क्या यह लोक तंत्र लिए एक कलंक नहीं है दूसरी और यह चुनावी कानून का उलंघन भी है जिसमे किसी को मत देने के लिए निर्देशित नहीं किया जा सकता है ? तो क्या हम यह समझें कि हमारा लोकतंत्र एक ढकोसला मात्र है वहीँ अत्यधिक धन का खर्च भी कलंक ही है ? इस लिए जागरूक मनुष्यों के द्वारा किसी निर्देश पर अपना मत देना लोकतंत्र के बजाय भेड़तंत्र के समान है। भारत में इस भीड़तंत्र पर लोकतंत्र की अवधारणा को मूर्तरूप देने वाले लोग शायद अब तो स्वर्ग या जन्नत में बैठकर अपना माथा ठोक रहे होंगे ? एस पी सिंह, मेरठ
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