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अगर सियासी आजादी और लोकतंत्र की जाए तो देश में कभी जनता के हाथों में शासन पहंचा ही नहीं। देश में आज भी लोकतंत्र केवल कुछ परिवारों तक ही सीमित रह गया। आखिर ये कैसा लोकतंत्र है जहां परिवारवाद हावी है। देश का पूरा लोकतंत्र चार पांच घरानों तक ही सीमित है। स्वतंत्रता संग्रामी राममनोहर लोहिया कहतें थें कि पार्टी परिवार होता है। लेकिन हमारे देश के रहनुमाओं ने तो पार्टी को ही परिवार बना लिया है। यहां तक कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के द्वारा चुनी गयी सरकार को भी एक संगठन चला रहा है जिसकी देश के प्रति जवाब देहि है ही नहीं । ऐसे में देश की आजादी का क्या मतलब है। जहां लोकतंत्रनुमा सरकार तो है। लेकिन लोकतंत्र की तलाश आज तक देश की जनता कर रही है। और हर पांच वर्ष के बाद कुछ ठग किस्म के लोग जनता को ठग ही लेते हैं?
जहां एक चुनाव जीत कर प्रधान मंत्री बना हुआ व्यक्ति अपने आप को किसी चक्रवर्ती सम्राट की श्रेणी का समझते हुए लोक तंत्र की ह्त्या करने से भी बाज न आने की कसम सी खा ली है । जब किन्ही केंद्रीय मंत्रियों पर कुछ गंभीर आरोप लगते है तो प्रधान मंत्री ने मौन धारण कर लिया है । लोकतंत्र लोकलाज और सात्विक परम्पराओं पर चलता है किसी। ताना शाह द्वारा लूटी गई रियासत के मालिक की तरह नहीं होता है लोकतंत्र । और अगर इसका दोष किसी को दिया जा सकता है पूर्ण रूप से संविधान के निर्माता ही इस बात के दोषी हैं कि उन्होंने शासन चलाने की हड़बड़ी में संविधान का निर्माण बहुत ही विस्तृत विचार विमर्श के पश्चात ही किया लेकिन औपनिवेसिक कानूनों को जस का तस ही छोड़ दिया जिसके बल पर अंग्रेज हम पर शासन किया करते थे यानि गुलामो पर शासन करने वाले कानूनों के सहारे ?
क्योंकि हमारे जन सेवकों भी यह औपनिवेसिक कानून शासन करने में सुविधाजनक लगते हैं इस लिए कुछ थोड़े बहुत बदलाव करके शान से शासन कर रहे है । ऐसा भी कहते है की लोकतंत्र में मालिक जनता होती है और पूरी शासन प्रणाली जनता की नौकर होती है ! लेकिन इसी लोक तंत्र का कमाल है की मजदूर गरीब दलित वोट देकर अपना शासक तो चुन लेता है लेकिन स्वयं दरिद्र नारायण के चोले से कभी बहार नहीं आ पाते जबकि नौकर लखपति से करोड़ पति और करोड़ पति से अरबपति बनने में देर नहीं लगती ?
सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक राज्यसभा में पारित नहीं करा सकी, इसलिए उसने तीन बार अध्यादेश जारी करके उसे संसद की अनुमति के बिना लागू किया हुआ है. यह इस बात का संकेत है कि वह संसद की राय को बहुत महत्व नहीं देती. खुद लोकसभा का चुनाव हारकर राज्यसभा की सदस्यता की बदौलत मंत्री बनने वाले वित्तमंत्री अरुण जेटली ने राज्यसभा की जरूरत पर ही सवाल उठा दिया है क्योंकि इसके कारण सीधे जनता द्वारा चुनी हुई लोकसभा द्वारा पारित विधेयक कानून की शक्ल नहीं ले पा रहा. ये सभी लोकतंत्र को कमजोर करने वाले संकेत हैं.
यही आशंका वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी ने व्यक्त की थी कि देश में लोकतंत्रविरोधी शक्तियां लोकतांत्रिक शक्तियों की तुलना में कहीं अधिक ताकतवर हैं और इमरजेंसी के दौर की वापसी की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता ! और यही। दर्द वरिष्ठ बी जे पी नेता शांता कुमार ने भी व्यक्त किये थे की वर्तमान सरकार के मंत्रियों के कुकृत्य से वरिष्ठ नेताओं के सर शर्म से झुके जा रहे हैं !
25 जून, 1975 की रात को इमरजेंसी लगने के पहले देश में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन चला था, बहुत कुछ वैसा ही जैसा पिछले दो सालों के दौरान अण्णा हजारे और अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में चला. देश की अर्थव्यवस्था भी संकट में थी. आज भी सरकारी दावों के बावजूद आर्थिक विकास की वह दर नहीं है जिसकी उम्मीद की जा रही थी और आम आदमी को महंगाई ने परेशान कर रखा है. रोजगार के नए अवसर पैदा करने का भारतीय जनता पार्टी का वादा अभी तक वादा ही बना हुआ है. युवाओं का मनोबल बढ़ाने वाली कोई बात नहीं हो रही. लोकतंत्रविरोधी ताकतों के मजबूत होने के लिए यह उर्वर भूमि है.
जिस तरह मनमोहन सिंह की सरकार विपक्ष के हमलों का सामना कर रही थी और चारों ओर से घिरती जा रही थी, उसी तरह नरेंद्र मोदी की सरकार इस समय तरह-तरह के आरोपों से घिरती जा रही है. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इस समय गलतबयानी और भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही हैं तो धिव राज सिंह चौहान व्यापम के व्यापक घोटाले में गले तक डूबने के बाद भी बड़ी बहादुरी से अपनी पीठ थपथपाने से बाज ही नै आ रहे हैं. मोदी का जादू फीका पड़ता जा रहा है. केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह कह रहे हैं कि चाहे कुछ भी हो जाये, इस सरकार का कोई भी मंत्री इस्तीफा नहीं देगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूं तो हर चीज पर बोलने को तैयार रहते हैं, लेकिन अपनी सरकार के मंत्रियों के खिलाफ लग रहे आरोपों पर मौन रखे हुए !
सिविल सोसाइटी और स्वेच्छिक संगठनों पर अंकुश लगाने के प्रयास चल रहे हैं. शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र को हिन्दुत्व की विशिष्ट विचारधारा द्वारा नियंत्रित और नियमित करने की कोशिशें भी जारी हैं. ऐसे में लोकतांत्रिक असहमति के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है. शासन में पारदर्शिता की लगातार कमी होती जा रही है और प्रधानमंत्री कार्यालय यह तक बताने को तैयार नहीं है कि उद्योगपति अडानी प्रधानमंत्री मोदी से अब तक कितनी बार मिले हैं. राजनीतिक और धार्मिक असहिष्णुता बढ़ती जा रही है. देश के विभिन्न हिस्सों में स्वतंत्र पत्रकारों पर कातिलाना हमले हो रहे हैं. यह स्थिति लोकतंत्र के लिए बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती. फिर यह लोक तंत्र किसके लिए है ताना शाहों के लिए या जनता के लिए
एस पी सिंह । मेरठ
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