Menu
blogid : 2445 postid : 1006212

शर्म मगर उनको आती क्यों नहीं !!!

पाठक नामा -
पाठक नामा -
  • 206 Posts
  • 722 Comments

शर्म, वैसे तो शर्म स्त्रीलिंग होती है और जब शर्म किसी फीमेल को आती है तो वह शर्म से लाल हो जाया करतीं है ।परंतु यह मर्दों को भी होती है । इसलिए हम तो बस मर्दों को होने वाली शर्म की ही बात करेंगे । शर्म वह भी किसी ख़ास मर्द यानी प्रधान मंत्री को आये वो भी देसी व्यक्तियों के बीच विदेशी धरती पर तो किसी गजब से कम तो नहीं ? तो फिर खुदा ही मालिक है ।और हो भी क्यों नहीं शर्म का आना एक सभ्यता की निशानी जो है क्योंकि किसी बेशर्म को तो शर्म आ ही नहीं सकती। शर्म से किसी बेशर्म की रिश्ते दारी भी नहीं हो सकती । वैसे भी न तो शर्म का सर होता है और न पैर होते हैं फिर भी आप शर्म को अपंग नहीं कह सकते क्योंकि वह तो शर्म दार का गहना है । और गहने पहनने का चलन स्त्री पुरुष दोनों में ही है । इसलिए अब से एक वर्ष पहले तक अगर किसी को भारतीय कहने और कहलवाने में शर्म शर्म महशूस होती थी तो यह गलती किसकी है !

बात तो पते की है लेकिन जानने के लिए किसके पते पर पत्र लिखें ! इसलिए हमने भी आधुनिक नारद जी यानिकि नेट का सहारा लिया और लग गए खोज बीन में ! आजादी की लड़ाई से होते हुए हम उड़के भी पीछे पहुँच ही गए और जाने क्या क्या खंगाल मारा तब जाकर यह थोडा कुछ समझ में आया की एक वर्ष पहले तक आखिर भारतीय लोग क्यों शर्म सार थे कारण साधारण ही नहीं असाधारण भी है । वह ऐसे कि 28 दिसंबर 1885 के दिन एक अंग्रेज जो ब्रिटिश सिविल सेवा से रिटायर्ड थे मिस्टर A.O. Hume, उन्होंने भारतियों के लिए एक संस्था की स्थापना की जिसका नाम। था कांग्रेस इसमें लोगो को शायद अंग्रेज के अपभ्रंश् का एहसास होता है क्योंकि आगे चल कर यही संस्था कांग्रेस ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का रूप धारण किया और स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा होकर आजादी के बाद 15 अगस्त 1947 से लेकर 1976 तक लगातार शासन किया तथा 1980 से 1991 और फिर 2004 से 2014 तक लगभग 57-58 वर्ष तक देश पर राज किया जिस पार्टी के जन्म दाता एक अंग्रेज थे ।

अब यह तो सच्चे देशभक्तों के लिए बहुत कष्ट दयाक पीड़ा है की वह आजाद होने के बाद भी किसी विदेशी द्वारा स्थापित पार्टी के आधीन रहे ! और शायद इसीलिए प्रधान सेवक को लगता है कि विदेश में प्रवास करने वाला भारत वंशी अपने को भारतीय कहने और कहलवाने में एक वर्ष पहले तक शर्म महशूस कर रहा था? शायद इसी लिए विरोधियों को शर्म आती है कि एक तो पार्टी का जन्मदाता एक अंग्रेज था दूसरे पार्टी की अध्यक्ष का मूल भी विदेशी शायद हम संसझते हैं कि करेला कितना भी कड़वा हो खाया जाता परंतु अगर करेले की बेल नीम के पेड़ पर चढ़ जाए तो करेला और भी कड़वा होगा फिर इसको कोई कैसे खा सकता है? यही कष्ट देशभक्तों का भी है । इसी कष्ट के कारण आज की विदेश मंत्री और किसी समय की नेता प्रतिपक्ष ने भी वर्ष 2004 में प्रतिज्ञा ही कर डाली थी की अगर देस में कोई विदेशी मूल का व्यक्ति प्रधान मंत्री बनेगा तो वह अपना सर मुंडा कर सन्यासी बन जायंगी और घर में ही रहते हुए ही सन्यासियों जैसा जीवन यापन करेंगी ।लेकिन ऐसा हो नहीं सका ! उनकी सन्यासी बनने की हसरत उनके दिल में ही रह गई ।

समय हमेशा गति ढील रहता है । और समय के फेर ने फिर करवट ली और उस समय सन्यासी न बन पाई विदुषी आज देश की विदेश मंत्री है ! शायद अब उन्हें भारतीय होने और कहलवाने में शर्म आने का तो कोई सवाल ही नहि है ! अपितु गर्व अनुभव होता होगा ? मगर हम समझते हैं कि। काश! ऐसा हो जाता की आज की विदेश मंत्री उस समय किसी विदेशी मूल के व्यक्ति द्वारा प्रधान मंत्री होने पर अगर सन्यासी बन गई होती तो देश को यह दिन नहीं देखना पड़ता और न ही किसी भारतीय का सर शर्म से झुकता ! क्योंकि न होता बांस तो बांसुरी कैसे बजती ! बांसुरी तो बजनी ही थी वह यह भी किस कौशल और कुशलता से इसको सारे देश ने देखा है ? अब यह तो कीसी सर्वे या शोध का विषय ही हो सकता है कि आज कितने भारतियों को अपने राजनेताओं के राजनितिक कौशल पर कितनी शर्म आती है या गर्व होता है ? क्योंकि सरकार तो निर्बाध रूप से कम कर रही है परंतु संसद नहीं चल रही है जहां पर प्रतिदिन करोडो रूपये का खर्च हो रहा है ल इसलिए राजनितिक शोधार्थियों के लिए यह एक शोध का विधाय है और डाभी राजनितिक व्यक्तियों को भी चिंतन करना चाहिए ।

SPSingh। Meerut

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh