Menu
blogid : 2445 postid : 1102860

भारत में उदारीकरण और समाजवाद की अवधारणा !

पाठक नामा -
पाठक नामा -
  • 206 Posts
  • 722 Comments

क्या भारत में संविधान की आत्मा सोसलिस्ट समाजवाद और उदरिकतं दोनों साथ साथ चल सकते है ?
जिस सोसलिस्ट समाजवाद की अवधारणा हमारे संविधान में निहित है उसे हम अपनी गिरती हुई अर्थ व्यवस्था और दिवालियेपन से पीछा छुडाने के लिए 1991 में ही तिलंजलि दे चुके थे ! वर्ष 1991 भारतीय अर्थनीति के लिए इस रूप में क्रांतिकारी सिद्ध हुआ कि भारत की नई केंद्रीय सरकार जिसने कि मई 1991 में कार्यभार संभाला, ने कथित समाजवाद की दशकों से घोषित नीति से किनारा करते हुए उदारीकरण की नीति को अपनाने का निर्णय लिया जिसका कार्यान्वयन जुलाई 1991 में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा प्रस्तुत उनके प्रथम केंद्रीय बजट में परिलक्षित हुआ । अपने सम्पूर्ण कार्यकाल के दौरान अर्थात् मई 1996 तक ।
1991 एक संकट का दौर था जिसमे हमारी अर्थव्यवस्था गंभीर संकट से गुज़र रही थी । हमारा विदेशी मुद्रा भंडार ख़ाली होने जैसी अवस्था में था जिसमें मुश्किल से तीन सप्ताह के आयात के भुगतान हेतु विदेशी मुद्रा उपलब्ध थी । स्पष्टतः विदेशी व्यापार में हमारे लिए भुगतान संतुलन की स्थिति पूरी तरह प्रतिकूल थी । देश का सोना बैंक ऑव इंग्लैंड तथा यूनियन बैंक ऑव स्विट्जरलैंड के पास गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा प्राप्त करने के बावजूद हाल ऐसा था जिसे वित्तीय आपातकाल की संज्ञा दी जा सकती है । कटु सत्य तो यह है कि विदेशी व्यापार में हमारे दिवालिया घोषित होने में थोड़ी ही कसर बाकी रह गई थी । ऐसी विकट परिस्थिति में उदारीकरण का जो कदम उठाया गया, वह मर्ज़ी का न होकर मजबूरी का था ।

मई 1996 से मई 2004 तक भारतीय राजनितिक में संक्रमण काल रहा जिसमे कई प्रयोग हुए जिसमे गठबंधन और बाहर से समर्थन देने का प्रचलन भी था ? फिर प्री पोल एलायन्स का दौर भी आया जिसमे बीजेपी के नेतृत्त्व में 26 पार्टियों का गठबंधन भी अस्तित्व में आया और बाजपाई जी ने तीन टुकड़ो में 6 वर्ष तक लगातार शासन किया । लेकिन बीजेपी की अपनी उग्र हिन्दुतत्व की विचार धारा और उसके अनुषांगिक संघठनो की कार्य शैली का ही परिणाम रहा की 2004 में सत्ता में होते हुए भी बीजेपी को मुंह की। खानी पड़ी और उसे कांग्रेस के गठबंधन से मात खाने में जरा भी शर्म नहीं आई । इतना ही नहीं पिछले चुनाव से भी कम संख्या में उसके आदमी जीत पाये ?

आर्थिक सुधारों के जनक मनमोहन सिंह के नेतृत्त्व में कांग्रेस ने गठबंधन की सरकार बनाई ! 2009 तक सरकार सफलता पूर्वक चली परंतु आर्थिक प्रगति जिस प्रकार से होनी चाहिए थी वह उस प्रकार से नहीं हो सकी क्योंकि मनमोहन सिंह जहाँ एक कुशल प्रशासक होने के बाद भी एक कुशल राजनितिक हस्ती नहीं बन पाये ? और अपने एलायन्स मिनिस्टरों के
कार्यकलाप के कारण एवं विपक्ष असहयोग के कारण वांछितआर्थिक सुधारों को परवान नहीं चढ़ा सके ?

लेकिन अपनी साफ़ सुथरी छवि के कारण 2009 में भी मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने फिर गठबंधन की सरकार बनाई ।.लेकिन विपक्ष के लगातार हमले और सहयोगियों के भ्रष्टाचार के कारण यू पी ए का दूसरा कार्यकाल विवादों सा भरा रहा ? जिन आर्थिक सुधारो के लिए मनमोहन सिंह जाने जाते थे वह उन सुधारों को नहीं लागू कर पाये उन पर पालिसी पेरालेसिस का आरोप लगता ही रहा ! जहां एक ओर सरकार पर पॉलिसी पेरालेसिस का आरोप था वहीँ सरकार अनिर्णय की स्तिथि में होते हुए विदेसी निवेश और हथियारों की खरीद को फाइनल नहीं कर सकी ?

2014 में सत्ता परिवर्तन हो जाने के उपरांत नई सरकार ने भी विगत ढाई दशकों से चली आ रही इस अर्थनीति में संशोधन का कोई संकेत नहीं दिया है । संभवतः इस राह पर हम इतनी दूर निकल आए हैं कि लौटने का साहस अब किसी भी सरकार में नहीं है !।

तत्कालीन सरकार की विवशता स्पष्ट थी । हमें विदेशी वित्तीय संस्थाओं एवं धनी देशों के समक्ष विदेशी मुद्रा के लिए हाथ फैलाना था । जैसा कि कहा जाता है – ‘बैगर्स आर नॉट चूज़र्स’ अर्थात् भिक्षुकों के लिए कोई चयन की सुविधा नहीं होती । भिक्षा जो मिले, जैसे मिले, जहाँ से मिले; उसे लेने के अतिरिक्त उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं होता । उस समय स्थिति किसी भिक्षुक जैसी ही थी । मानो हाथ में भिक्षापात्र लेकर वे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों तथा आर्थिक दृष्टि से सशक्त देशों के समक्ष विदेशी मुद्रा के लिए भिक्षाटन कर रहे थे । उन्होंने इस अपमानजनक स्थिति की पीड़ा को राष्ट्रहित में भोगा और जो भी शर्तें भिक्षा देने वालों ने उन पर थोपीं, उन्हें शीश नवाकर स्वीकार किया । आधुनिक युग में जब कुछ भी निःशुल्क नहीं मिलता तो यह भिक्षा भी बिना शर्त हमें कैसे मिलती ? दाताओं ने हमें भिक्षा नहीं दी वरन हमारी विवशता का सौदा किया और यह कथित उदारीकरण इसी प्रक्रिया में वस्तुतः हम पर आरोपित ही किया गया । हमें आर्थिक सहायता देने वाले इस सहायता के बदले में हमारे देश में अपने लिए खुला बाज़ार चाहते थे जिसमें घुसकर वे व्यापार तथा उद्योग-धंधों में लिप्त भारतीयों को प्रतिस्पर्द्धा में हराकर हमारे अर्थतन्त्र पर सम्पूर्ण अधिकार कर सकते । हमने उस मुश्किल घड़ी की मजबूरी से समझौता करते हुए इसे माना । इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए 1994 में हमने गैट समझौते पर भी हस्ताक्षर किए । परिणाम यह रहा कि बाज़ार पर सरकारी नियंत्रण का युग समाप्त हुआ और भारतीय अर्थव्यवस्था में पहली बार मांग एवं पूर्ति की शक्तियों को खुलकर खेलने का अवसर मिला । घरेलू उत्पादों को सरकारी संरक्षण मिलना लगभग बंद हुआ तथा आयात सुगम हो जाने के कारण भारतीयों के उपभोग के लिए नाना प्रकार के विदेशी उत्पादों के आगमन का मार्ग खुल गया ।

अब ढाई दशक बाद क्या यह उचित नहीं कि इस नीति का पुनर्मूल्यांकन किया जाए और देखा जाए कि यह किस सीमा तक राष्ट्र के हित में रही ? इस नीति को आर्थिक सुधारों का नाम भी दिया जाता है । पर इन सुधारों से आम भारतीयों के जीवन में कितना सुधार हो पाया, यह पड़ताल का विषय है । भुगतान संतुलन का गंभीर संकट तत्कालीन समस्या थी जिससे निपटने के लिए अल्पकालीन विकल्प के रूप में इस नीति को अपनाया जाना सर्वथा उचित था । लेकिन इसे दीर्घकालीन नीति के रूप में स्थायी रूप से अपना लिया जाना क्या समग्र राष्ट्र एवं रोटी, कपड़ा और मकान की आधारभूत आवश्यकताओं से दैनंदिन जूझने वाले आमजन के हित में है ? इस नीति को अपनाए जाने के उपरांत उद्योग-धंधों पर अनावश्यक सरकारी नियंत्रण की एक भ्रष्ट व्यवस्था जो कि ‘लाइसेन्स-कोटा-परमिट राज’ के नाम से बदनाम थी, पूर्णतः समाप्त नहीं हुई तो कम-से-कम सुधरी तो अवश्य लेकिन अंततोगत्वा इससे लाभ या तो विदेशी कंपनियों को हुआ और या फिर बड़े भारतीय उद्योगपतियों को । यह कथित उदारीकरण हमारे देश के छोटे व्यापारियों एवं उद्यमियों के लिए तो अनुदार ही सिद्ध हुआ । आज दानवाकार विदेशी कंपनियों को जिस तरह से देश में आकर व्यवसाय करने की निर्बाध अनुमति दी जा रही है, उससे तो छोटे पैमाने पर व्यवसाय करके अपनी रोज़ी-रोटी कमाने वाले स्वनियोक्त भारतीयों के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है ।

उदारीकरण के इस युग में सेवा क्षेत्र प्रधान बन बैठे हैं जिनमें से अधिकतर परजीवी हैं और उत्पादन एवं आय के वितरण को प्रभावित करने के अतिरिक्त उसमें अपना कोई सकारात्मक योगदान नहीं देते हैं । ऐसे अनेक क्षेत्रों में जुए सरीखी सट्टेबाज़ी वैधानिक नामों से होती है जिसमें आर्थिक रूप से सशक्त व्यक्ति एवं अभिकरण ही सफल रहते हैं क्योंकि वे अपनी सुदृढ़ स्थिति के बल पर इस खेल के दुर्बल खिलाड़ियों की गतिविधियों का अपने हक़ में बड़ी आसानी से इस्तेमाल कर लेते हैं । इस व्यवस्था में परजीवी और बिचौलिये उत्तरोत्तर धनार्जन करते हैं जबकि वास्तविक उत्पादकों का केवल शोषण होता है । परिणामतः जो पहले से ही अमीर हैं, उनके लिए और अमीर होते जाना सुगम है लेकिन जो हाशिये पर हैं और रोज़ कुआँ खोदकर रोज़ पानी पीते हैं, उनके लिए तो जीना कठिन से कठिनतर होता जा रहा है ।

सुनाने और देखने में बहुत अच्छा लगता है की बैंक से जितना कर्ज चाहो ले सकते हो परंतु वास्तविक में बैंक या वित्तीय संस्था से ऋण लेना हिमालय पर चढ़ने जैसा कठिन कार्य है जबकि विदेशी उद्यमियों के लिए हमारा हृदय और संसाधन दोनों खुले पड़े हैं । उनके लिए वर्तमान प्रधान मंत्री स्वयं अपने हाथों से लाल कार्पेट बिछाने का कार्य ही नहीं करते बल्किन विदेशी सरकारों के द्वार पर जा कर अपना माथा भी उनकी चौखट पर रगड़ते गिड़गड़ाते नजर आते है यह उनकी 15 माह में की गई 29 विदेश यात्राओं के आयोजन से ही परिलक्षित होता है ?

यह उदारीकरण हमें क्रेता ही बना रहा है – ऐसा क्रेता जिसकी क्रय-शक्ति उत्तरोत्तर घट रही है, विक्रेता नहीं जो अपने उत्पादित माल का विक्रय करके अपनी पूंजी को बढ़ा रहा हो । नब्बे के दशक में जब हम याचक थे तो हमारे धूर्त दाताओं ने हमें सशर्त भिक्षा इसीलिए दी थी ताकि हम उन्हें हमारे ही संसाधनों के उपयोग से माल बनाकर हमें ही बेचने और हमारे धनधान्य को लूट लेने की सुविधा देते । कभी ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में व्यापार करने के लिए देशी राजाओं से याचना करते नजर आते थे लेकिन आज हम अपने दलबल सहित हजारों कंपनियों को आमंत्रित कर रहे है और ऐसा करके हमें आर्थिक दासता से राजनीतिक दासता की ओर धकेला जा रहा है अब तो दर्ज़नों ईस्ट इंडिया कंपनियां उपस्थित हैं हमें लूटने के लिए । लेकिन हमारे शासकों यह याद रखना होगा कि हम ढाई दशक पहले वाले याचक नहीं हैं । हमारे विदेशी मुद्रा भंडार परिपूर्ण हैं और भुगतान संतुलन का कोई संकट आसन्न नहीं है । किसी भी उन्नत देस की भांति हमने कौड़ियों के मोल में अपना यान मंगल गृह की कक्षा में सफलता पूर्वक पहुंचा दिया है ! कम्प्यूटर के क्षेत्र में हम और हमारे नौजवान पुरे संसार में डंका बजा रहे हैं ! तो फिर क्यों हम उदारीकरण के पथ पर लगातार दौड़ते ही जा रहे हैं बिना आगे देखे और परखे कि यह दौड़ हमें कहाँ लिए जा रही है ? इस अंधी दौड़ को रोकना और राष्ट्र तथा जनता के हितों का समुचित विचार करके आर्थिक नीतियों में यथोचित सुधार करना अत्यंत आवश्यक है । यदि इन आर्थिक सुधारों को अब पलटा या रोका नहीं जा सकता तो कम-से-कम इन्हें संशोधित करके देश एवं देशवासियों के दीर्घकालीन हितों के अनुरूप ढाला तो जा सकता है ।

जिस नीति में राष्ट्र के निर्धनतम नागरिक के कल्याण की भावना निहित नहीं, उसे राष्ट्र के हित में कैसे माना जा सकता है ? हमने इस तथाकथित उदारीकरण को एक भिक्षुक की विवशता के रूप में अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया था किन्तु एक भिक्षुक के जीवन-दर्शन को एक सामान्य व्यक्ति द्वारा अपनाया जाना तो उचित नहीं ठहराया जा सकता । एक सामान्य व्यक्ति का जीवन-दर्शन तो स्वावलंबन-केन्द्रित ही होना चाहिए । अतः इस अंधी दौड़ को विराम देकर इस नीति का पुनर्मूल्यांकन किया जाए जिसकी कसौटी यही हो कि इस उदारीकरण में हमारे देशवासियों के लिए उदारता कितनी है ।

आज जो सरकार अस्तित्व में है उसका लक्ष्य सभी भारत वासियों का साथ और सब का विकास है लेकिन देखने में तो यह आ रहा की मोदीजी पूरी दुनिया को ही लक्ष्य मान कर पुरे यूनिवर्स का ही साथ तो लेना चाहते है साथ ही पूरे यूनिवर्स का विकास भी करना ही उनका लक्ष्य बन गया है ?

यह खतरनाक हो सकता है हमारा देस गावों में बस्ता है 65 से 75 प्रतिशत आबादी गावँ में जो बस्ती है ! अगर विकास की गंगा गांव से चले तो समाजवाद की परिकल्पना से कुटीर उद्दोग धंधे खूब फल फुलेगें ? आज हमारे कुटीर उद्योग धंधो का स्थान चीन ने कब्ज़ा लिया है। ? सभी त्योहारो पर उपयोग होने वाले सामन का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता चीन है ! होली। दीवाली।रक्षाबंधन।बसंत पर उड़ने वाली पतंग। फर्नीचर। बच्चों की कपडे। महिलाओं के परिधान । सभी प्रकार के खिलोने। इलेक्ट्रिक सामान।कम्प्यूटर और उससे सम्बंधित उपकरण ! पर आज चीन की बपौती है देस का कुटीर और लघु उद्योग रसातल में चला गया है ? यहां तक की भारत के सभी तीर्थ स्थलो पर लोकल कारीगरों के द्वारा निर्मित सामान का स्थान चीन निर्मित वस्तुओं ने कब्ज़ा लिया है ! और इस देश के बेगैरत व्यापारी इतने गिर गए है की चीन निर्मित सिंथेटिक चावल आयात करके उन्हें चावलों में मिला कर बेच रहे हैं ?

जैसा कि वर्तमान सरकार पर आरोप लगता है की यह सरकार व्यापारियों की ही सरकार ? क्योंकि आज महंगाई कहाँ पहुच गई है परन्तु सरकार महंगाई बढ़ने और व्यापारी द्वारा मोटा मुनाफा कमाने के बाद नींद से जागकर अब प्याज और दालों का आयत करने जा रही है ? कारण की व्यापारियों को खुली छूट है मनमाफिक मुनाफा कमाने की अभिलाषा में देस की भावी पीढ़ी को विकलांग और नपुसंक बनाने की घृणास्पद साजिस हो रही है ?

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh